Sunday 31 May 2020

एकिडना के दूध में मिला बीमारियों को रोकने वाला जादुई प्रोटीन

Magic protein found in Echidna's milk




एकिडना (Echidna) एक ऐसा स्तनधारी (Mammal) जीव है जो चींटी खाता है, अंडा देता है और केवल आस्ट्रेलिया और न्यू गिनी में पाया जाता है। शरीर पर लंबे-लंबे कांटे जैसी रचनाएं धारण करने वाले इस जीव के दूध (Milk) में वैज्ञानिकों ने एक ऐसा एंटी-माइक्रोबैक्टीरियल प्रोटीन (Protein) खोजा है जो बैक्टीरिया (Bacteria) का नाश करने में सक्षम है। यह प्रोटीन बहुत सारी बैक्टीरिया प्रजातियों की कोशिका झिल्ली को नष्ट कर देता है।

एकिडना के दूध से इस प्रोटीन को अलग करने का काम कौंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च और सेंटर फार सेल्युलर एंड मॉलिक्युलर बायोलॉजी (CSIR-CCMB) के वैज्ञानिकों ने किया है। इससे मवेशियों में प्रयोग किए जाने वाले एंटीबायोटिक्स (antibiotics) का एक बढ़िया विकल्प मिल गया है। विभिन्न प्रकार के संक्रमणों को फैलने से रोकने में एकिडना के दूध में पाया गया यह प्रोटीन बहुत काम आ सकता है।

वैज्ञानिकों के अनुसार इस प्रोटीन को ई.कोली का प्रयोग करके बड़ी मात्रा में बनाया जा सकता है। एंटीबायोटिक्स के अंधाधुंध प्रयोग के कारण बैक्टीरिया में सुपरबग्स का निर्माण होता है जिससे दवाई का असर होना बंद हो जाता है। लेकिन एकिडना के दूध में मिले प्रोटीन की खासियत यह है कि यह इस प्रकार के बैक्टीरिया को भी नष्ट करने में सक्षम पाया गया है। वैज्ञानिकों की इस खोज से पशुपालन के क्षेत्र में बीमारियों पर प्रभावी नियंत्रण की उम्मीद बंधी है।

- लव कुमार सिंह

#AnimalHusbandry #Milk #Echidna #WorldMilkDay


धूम्रपान करने से हमें क्यों डरना चाहिए?

Why should we be afraid of smoking?

Because it causes so many diseases whose list does not end



धूम्रपान करने से हमें क्यों डरना चाहिए? क्योंकि धूम्रपान से होने वाले रोगों की लिस्ट ही इतनी लंबी है। आइए देखते हैं कि सिगरेट पीने या अन्य तरीकों से धूम्रपान करने से हमारे शरीर को क्या-क्या नुकसान हो सकते हैं-

तरह-तरह के कैंसर और सांस नली के रोग


धूम्रपान से सबसे अधिक खतरा कैंसर, विशेष रूप से फेफड़े के कैंसर का होता है। सिगरेट के कागज में मौजूद टार नामक पदार्थ कैंसर पैदा करने वाला होता है। इसके कारण सांस की नली में संकरेपन से हार्ट अटैक पड़ सकता है। सिगरेट के धुएं में कैंसर की पहल करने वाले, कैंसर को बढ़ावा देने वाले और कैंसर की वृद्धि को तेज करने वाले 40 से ज्यादा तत्व मिलते हैं।

धूम्रपान से पैदा होने वाली विषैली गैसें जैसे कार्बन मोनोऑक्साइड, हाइड्रोजन ऑक्साइड और ऑक्सीडाइट निकोटीन फेफड़ों के कैंसर के साथ ही हार्ट अटैक, अस्थमा, दमा, क्षय रोग जैसे रोगों को जन्म देती हैं।

गले का कैंसर, मुंह कैंसर, भोजन नली का कैंसर और मूत्राशय का कैंसर भी धूम्रपान करने वालों में बहुतायत में होता है। साथ में लोगों को गुर्दे, अग्न्याशय, पेट और गर्भाशय ग्रीवा (सरविक्स) के कैंसर भी होते देखे गए हैं।

हृदय को परेशानी    

     

धूम्रपान से रक्त वाहिकाओं के फैलने-सिकुड़ने की क्रिया घट जाती है, जिससे हृदय की गति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इससे हृदय से जुड़े विभिन्न रोग हो सकते हैं। खास बात यह है कि सिगरेट पीने वाले व्यक्ति में हार्ट अटैक की आशंका सामान्य व्यक्ति के मुकाबले पांच गुना ज्यादा बढ़ जाती है। धूम्रपान से अच्छे कोलेस्ट्रॉल (एचडीएल) का स्तर घटने और हानिकारक कोलेस्ट्रॉल (एलडीएल) का स्तर बढ़ने से रक्तवाहिनियों में वसा का जमाव बढ़ जाता है।

सिगरेट का मुख्य तत्व निकोटीन, एड्रीनेलाइन और नॉन एड्रीनेलाइन नाम के हार्मोन के स्राव को उत्तेजित करता है। इससे हृदय के धड़कने की गति और रक्तचाप, दोनों ही बढ़ते हैं। विशेषज्ञों के अनुसार केवल 2 सिगरेट पीने से रक्तचाप में 8 से 10 मिलीमीटर की वृद्धि हो जाती है और यह वृद्धि 15 मिनट से ज्यादा समय तक कायम रहती है। इस स्थिति में हृदय की मांसपेशियां ज्यादा ऑक्सीजन की मांग करती हैं। दूसरी तरफ सिगरेट के धुएं मौजूद कार्बन मोनोऑक्साइड रक्त की ऑक्सीजन धारण करने की क्षमता को घटा देती है। कुल मिलाकर बिना किसी बाहरी जरूरत के हृदय को ज्यादा काम करना पड़ता है और वह कमजोर हो जाता है।

धूम्रपान रक्त का लसलसापन (विस्कॉसिटी) और इसके थक्का बनने की प्रक्रिया को बढ़ाता है। इससे धमनियों में अवरोध और नसों में खून का थक्का बनने की समस्या पैदा होती है। इस प्रक्रिया में मस्तिष्क को जाने वाली धमनियां और कोरोनरी धमनी सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं। इसके अलावा यदि शरीर में विटामिन सी की  कमी हो तो धूम्रपान के कारण धमनियों में कोलेस्ट्रल जमा होने लगता है।

हड्डियों को हानि



सिगरेट के धुएं में कैडमियम नामक तत्व मौजूद होता है जो हड्डियों को विशेष रूप से नुकसान पहुंचाता है। कैडमियम की थोड़ी सी मात्रा भी हड्डियों में मौजूद कैल्शियम को 20-30 प्रतिशत तक नुकसान पहुंचाती है। महिलाओं में धूम्रपान से एस्ट्रोजन हार्मोन पर विपरीत असर होता है जिससे उनकी हड्डियों में ऑस्टियोपोरोसिस नाम की बीमारी हो जाती है। इस रोग में हड्डियों में लगातार दर्द का एहसास होता है और अचानक किसी हड्डी में फ्रैक्चर भी हो सकता है। अमेरिकन केमिकल सोसायटी के अध्ययन के अनुसार सिगरेट पीने से शरीर में दो विशेष प्रकार के प्रोटीन ज्यादा बनने लगते हैं जिससे हड्डियों के ऊतकों को हटाने वाली अस्थि कोशिकाओं ‘ओस्टेओक्लास्टस’ के निर्माण में तेजी आ जाती है और ऊतकों के हटने से हड्डियां कमजोर होने लगती हैं।

लकवा


धूम्रपान के सेवन से रक्त के लसलसेपन और थक्का बनने को बढ़ावा मिलता है, इसलिए धूम्रपान करने वाले व्यक्ति में सामान्य व्यक्ति के मुकाबले पक्षाघात का दौरा (पैरालिसिस) पड़ने की आशंका ज्यादा बढ़ जाती है।

डायबिटीज


निकोटीन द्वारा एट्रीनेलाइन और नॉनएड्रीनेलाइन हार्मोन के स्राव को बढ़ावा देने से यकृत और मांसपेशियां रक्त में ज्यादा ग्लूकोज छोड़ती हैं। इसके रक्त में ग्लूकोज का स्तर बढ़ता है जिसे नियंत्रित करने के लिए अग्न्याशय बार-बार ज्यादा से ज्यादा इंसुलिन पैदा करने की कोशिश करता है। ऐसा करते-करते एक समय ऐसा आता है जब यह कमजोर हो जाता है और इंसुलिन का निर्माण नहीं कर पाता। इसका परिणाम डायबिटीज रोग के रूप में सामने आता है।

परेशानी ही परेशानी





  • सिगरेट के सेवन से ब्रोंकाइटिस, फेफड़ों के अवकों में विटामिन की कमी, खांसी, दमा, जुकाम आदि हो सकता है।
  • सिगरेट के सेवन से मुंह का स्वाद बिगड़ जाता है। पेड़ से जुड़ी बीमारियां मुंह उठाने लगती हैं। नींद न आने की समस्या भी पैदा हो सकती है। बलगम ज्यादा बनता है। दांतों में रोग लग जाता है। हाथ पीले हो जाते हैं और मुंह से बदबू आती है। 
  • धूम्रपान करने से सूंघने की शक्ति कम हो जाती है। उंगलियों का रंग कत्थई हो जाता है। चेहरे पर वक्त से पहले झुर्रियां पड़ जाती है और चमड़ी के कई रोग हो सकते हैं। 
  • निकोटीन और कार्बन मोनोऑक्साइड के कारण आंखों की रोशनी कम हो सकती है। यौवन शक्ति में भी गिरावट आती है। रक्त की संरचना बिगड़ने से यौन हार्मोन उचित क्रिया नहीं कर पाते हैं।
  • सिगरेट पीने से मानसिक कमजोरी आती है, सुनने की शक्ति कम हो जाती है और विशेषज्ञों के अनुसार व्यक्ति की आयु में प्रतिदिन 6 मिनट की कमी आती है।
  • सिगरेट पीने से रक्त जमने की क्रिया भी अनियमित होती है। यदि व्यक्ति को मधुमेह है तो इस रोग पर नियंत्रण करना मुश्किल होता है क्योंकि धूम्रपान से इंसुलिन पैदा करने वाली ग्रंति पैंक्रियाज पर विपरीत असर पड़ता है।
  • अधिक धूम्रपान से पैरों की नसों में समस्या आ जाती है और कभी-कभी पैर काटने की भी नौबत आ जाती है। इसे बर्जर की बीमारी भी कहते हैं।


महिलाओं पर दुष्प्रभाव



महिलाओं में उपरोक्त सभी दुष्प्रभावों के अलावा धूम्रपान करने से उनकी प्रजनन क्षमता पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है। महिलाओं में रजनोवृत्ति (मीनोपॉज) भी समय से पूर्व आरंभ हो सकती है। यदि गर्भवती महिला धूम्रपान करती है तो इससे गर्भपात की आशंका बढ़ जाती है। साथ ही बच्चा समय से पहले, मरा हुआ या रोगग्रस्त पैदा हो सकता है। महिलाओं में सिगरेट के सेवन से ब्रेन हेमरेज की आशंका पुरुषों के मुकाबले ज्यादा होती है।


- लव कुमार सिंह

#WorldNoTobaccoDay #QuitSmoking #SayNoToTobacco #NoSmoking

Friday 29 May 2020

क्या 'गोदी मीडिया' के शोर के कारण मोदी सरकार की उपलब्धियां नजरअंदाज हो जाती हैं?

Do the achievements of the Modi government get ignored due to the noise of 'Godi Media'?


Did the concept of 'Godi media' harm Modi rather than benefit?



इस वक्त देश में मीडिया के तीन वर्ग स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं।

एक वर्ग रवीश कुमार, पुण्य प्रसून वाजपेयी, सिद्धार्थ वरदराजन एंड कंपनी और टेलीग्राफ जैसे अखबारों का है जो स्पष्ट रूप से मोदी सरकार की आलोचना करता है और भूले से भी किसी अच्छे काम की प्रशंसा नहीं करता। पत्रकारों के इस वर्ग का पत्रकारिता के अतिरिक्त भी अपना एक एजेंडा है। पत्रकारों का यह वर्ग सरकार की आलोचना में अब इतना आगे बढ़ गया है कि वह चाहकर भी वापस नहीं लौट सकता या लौट नहीं पाता क्योंकि सरकार के किसी अच्छे काम की तारीफ से उसे अपने प्रशंसकों या मोदी विरोधियों के रुठने का खतरा रहता है। इस वर्ग को स्वयं भी यह आशंका रहती है कि सरकार के किसी काम की तारीफ करने पर कहीं उसे भी 'गोदी मीडिया' न कह दिया जाए, जबकि यह शब्दावली भी इसी वर्ग की दी हुई है।

दूसरे वर्ग में सुधीर चौधरी, अर्नब गोस्वामी, रजत शर्मा एंड कंपनी को रख सकते हैं। पत्रकारों का यह वर्ग बेशक मोदी सरकार की आलोचना कम करता है या नहीं करता है लेकिन चूंकि पहले वर्ग ने इन पत्रकारों को 'गोदी मीडिया' का नाम दे दिया है, इसलिए ये स्वयं को इस ठप्पे से मुक्त कराने की कोशिश में खुले स्वर से सरकार का गुणगान भी नहीं करते। ये बस विपक्ष पर हमलावर रहते हैं।

तीसरे वर्ग में मीडिया का अखबारी पत्रकारिता वाला हिस्सा मुख्य रूप से आता है। साथ में इस वर्ग में 'एबीपी न्यूज', 'न्यूज 24', 'आज तक' जैसे चैनलों के अनेक पत्रकार भी आ जाते हैं। हालांकि रवीश कुमार वाला मीडिया का पहला वर्ग इन्हें भी 'गोदी मीडिया' के घेरे में ही लपेट लेता है, जबकि हकीकत यह है कि मीडिया का यह वर्ग अपनी तरफ से संतुलन रखने की काफी कोशिश करता है और इस चक्कर में कभी भाजपा समर्थकों तो कभी कांग्रेस समर्थकों के कोप का शिकार बनता है।

यह वर्गीकरण से यह स्पष्ट नजर आता है कि मीडिया का पहला वर्ग अपने खास एजेंडे वाली पत्रकारिता की वजह से मोदी सरकार के अच्छे कामों की भी तारीफ नहीं करता, जबकि मीडिया का दूसरा और तीसरा वर्ग स्वयं को ‘गोदी मीडिया’ के ठप्पे से बचाने के चक्कर में सरकार के किसी सही कदम की भी खुलकर प्रशंसा नहीं कर पाता है। इसी ठप्पे से बचने के लिए यह तीसरा वर्ग मौका मिलने पर सरकार की खूब आलोचना भी करता है। इसका नतीजा यह होता है कि सरकार की बड़ी उपलब्धियों की भी खुलकर चर्चा नहीं हो पाती है।

इसका स्पष्ट रूप से पता हमें 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की दोबारा जीत के बाद लगता है। मोदी की दोबारा जीत के बाद एक विश्लेषण में स्वयं नरेंद्र मोदी के कटु आलोचक वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता ने माना कि शायद उनकी और उनके साथियों की नजरें मोदी की उपलब्धियों को देख ही नहीं पाईं या इन उपलब्धियों को नजरअंदाज कर दिया गया। 

अपने इस बयान में शेखर गुप्ता ने गरीबों को मुफ्त गैस सिलेंडर और मुद्रा लोन योजना के रूप में दो उदाहरण भी प्रस्तुत किए। नरेंद्र मोदी की सरकार ने छह वर्ष के दौरान करोड़ों सिलेंडर गरीब घरों में पहुंचा दिए। बेशक इन सिलेंडरों में गैस भरवाने को लेकर विवाद भी उठे लेकिन यह एक कामयाब योजना रही। न केवल चुनाव जीतने की दृष्टि से बल्कि महिलाओं को धुएं से छुटकारा दिलाने और गरीबों का जीवन स्तर सुधारने की दृष्टि से भी। शेखर गुप्ता ने अपने बयान में कहा कि चुनावी कवरेज के दौरान हम मोदी सरकार की योजनाओं के खिलाफ सुबूतों की तलाश कर रहे थे, लेकिन यह हमें नहीं मिल रहा था। हमें गैस सिलेंडर मिल रहे थे। हम किसी भी घर के अंदर झाकेंगे और गैस सिलेंडर पाएंगे।

मोदी सरकार ने छह सालों के दौरान करोड़ों रुपये मुद्रा लोन के रूप में छोटे-छोटे काम करने वाले लोगों में बांट डाले। ये लोन शिविर लगाकर बांटे गए और इनमें भाई-भतीजावाद भी नहीं देखा गया। हालांकि विपक्ष और मोदी के आलोचक पत्रकारों ने मुद्रा लोन योजना को बेकार की योजना करार दिया लेकिन जब 2019 में मोदी फिर से जीते तो शेखर गुप्ता ने कहा कि हमने शायद मोदी सरकार की लोक कल्याणकारी योजनाओं के प्रभाव की अनदेखी की।

गुप्ता ने कहा कि स्वयं मुझे लगता था कि मुद्रा लोन बकवास है। ये सब नकली होंगे। लेकिन मेरे पास (गुप्ता के पास) आजमगढ़ के 50 किलोमीटर दूर का एक वीडियो है जिसमें एक दलित ने कहा कि उसे 50 हजार रुपये का लोन मिला। उससे उसने चाय की दुकान खोली। अब वह हर महीने 1300 रुपये लोन के रूप में चुकाता है। इस दलित का वीडियो देखकर गुप्ता वापस आए तो डाटा की जांच की तो उन्हें पता चला कि अभी तक यानी 2019 के आसपास तक 4.81 करोड़ लोगों को 2.1 लाख करोड़ रुपये मुद्रा लोन के रूप में दिए जा चुके थे।

धारा 370 और राम मंदिर निर्माण भारत में स्वतंत्रता के बाद के दो सबसे बड़े मुद्दे थे। इनके कारण देश की राजनीति हमेशा गर्म रहती थी। दंगे भी हुए, लोगों की जानें गईं। लेकिन फिर लोगों ने देखा कि एक ही वर्ष में कश्मीर से धारा 370 हट गई और अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का रास्ता भी साफ हो गया। 'गोदी मीडिया' के ठप्पे से बचने के लिए मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा इन दो अति महत्वपूर्ण कामों के प्रभाव को वो तवज्जो नहीं दे सका जो दी जानी चाहिए थी। उधर मीडिया के पहले वर्ग को तो इन कामों की आलोचना करनी ही थी। उधर हम भारतीयों का यह स्वभाव भी है कि जब तक कोई समस्या रहती है तो वह हमें हिमालय जैसी विशाल नजर आती है और जब वह नहीं रहती तो लगता है जैसे कुछ समस्या थी ही नहीं।

पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि यदि 'गोदी मीडिया' का शोर नहीं होता और 2014 से पहले का समय होता और कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री के रूप में (चाहे राहुल गांधी, मायावती, ममता बनर्जी या कोई और) कश्मीर से धारा 370 हटा देता, उसके शासन में राम मंदिर निर्माण का रास्ता साफ हो गया होता, उसने गरीबों को आठ करोड़ से ज्यादा गैस सिलेंडर मुफ्त दिए होते, 2 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का मुद्रा लोन निम्न मध्यम वर्ग में बांट दिया होता, तीन तलाक समाप्त कर दिया होता, जीएसटी जैसा कर सुधार लागू किया होता, लाखों मुखौड़ा कंपनियों के शटर बंद कर दिए होते, डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर से सीधे लोगों के खातों में पैसे दिए होते और इससे कई लाख करोड़ रुपये बचाए होते, वन रैंक वन पेंशन देेने, अधिकांश भारतीयों के खाते खोलने का काम किया होता, आयुष्मान भारत जैसी स्वास्थ्य योजना ले आता, स्वच्छता को एक आंदोलन का रूप दे दिया होता, देशभर में शौचालय का रिकार्ड बना दिया होता, उत्तर-पूर्व भारत में और बांग्लादेश में ऐतिहासिक समझौतों को अंजाम दिया होता, विदेशों में भारत का नाम ऊंचा किया होता और पाकिस्तान में दो-दो बार सर्जिकल स्ट्राइक की होतीं तो मीडिया ऐसे व्यक्ति को निश्चित ही सर्वकालिक महान प्रधानमंत्री का खिताब देने से नहीं हिचकता। खासकर यदि कोई कांग्रेसी प्रधानमंत्री ये काम करता तो उसे निश्चित ही महान प्रधानमंत्री की श्रेणी में रख दिया जाता।

2014 से पहले के दौर को देखें तो मीडिया में यह बंटवारा था ही नहीं। इंडियन एक्सप्रेस समूह को छोड़कर सारा मीडिया सरकार के अच्छे कामों की तारीफ करने में हिचकता नहीं था और तब उस पर 'गोदी मीडिया' का ठप्पा भी किसी ने नहीं लगाया। अपने समय के बेहतरीन पत्रकार माने गए राजेंद्र माथुर ने समय-समय पर गुण-दोष के आधार पर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की आलोचना की तो खूब-खूब प्रशंसा भी की, लेकिन उन्हें किसी ने 'गोदी मीडिया' का नाम नहीं दिया। यही काम उस समय के अन्य पत्रकारों ने भी किया।

इस प्रकार यदि उपलब्धियों की प्रशंसा के आधार पर देखें तो 'गोदी मीडिया' जैसी शब्दावली से नरेंद्र मोदी को नुकसान ही ज्यादा हुआ है, क्योंकि अब नरेंद्र मोदी की जरा सी तारीफ का मतलब है कि आपको ‘गोदी मीडिया’ नामक गाली दे दी जाएगी। इसीलिए आज के तथाकथित ‘गोदी मीडिया’ के वर्ग में शामिल पत्रकार भी खुलकर सरकार के कामों की प्रशंसा नहीं कर पाते हैं। 

- लव कुमार सिंह


#1YearofModi2 #Modi1Year "Undoing 6" #ModiBestPmEver #ModiGovernment2

यह भी पढिए-
यदि राजेंद्र माथुर आज जीवित होते तो क्या उन्हें भी 'गोदी मीडिया' और 'अंधराष्ट्रवादी' करार दे दिया जाता?
https://stotybylavkumar.blogspot.com/2020/04/If-Rajendra-Mathur-had-been-alive-today-would-he-have-also-been-called-Godi-Media-and-Blind-Nationalist.html

अखबार अनेक मगर गलतियां एक

Many Newspaper but mistakes one


  • हिन्दी अखबारों में रोजाना दिखाई देती हैं अनेक और एक जैसी गलतियां
  • इस प्रकार की गलतियां अखबारों में दशकों से ऐसे ही होती चली आ रही हैं 




आज हम कोई भी हिन्दी अखबार उठाकर देखते हैं तो उन सभी में खबर लिखने के तरीके और भाषा का इस्तेमाल करते हुए पत्रकार बंधु एक जैसी गलतियां करते नजर आते हैं। कोई अखबार इससे अछूता नहीं है और वर्षों से ये गलतियां बदस्तूर जारी हैं। कई चीजों और खबरों को लेकर अखबारों में बाकायदा नियम हैं, लेकिन फिर भी इनका पालन होता नहीं दिखाई देता। 

कई जगह संपादक इन पर नियंत्रण की कोशिश करते दिखाई देते हैं, लेकिन लगातार प्रयास के अभाव, पत्रकारों की एक से दूसरे संस्थान में लगातार आवाजाही, सब चलता है”  की मानसिकता और इस संबंध में किसी किस्म के शोध, विश्लेषण, एकरूपता आदि के अभाव में गलतियों में पूरी तरह सुधार नहीं हो पाता।

दरअसल किसी भी अखबार के संपादक या प्रबंधक समस्या की जड़ में नहीं जाते। वे कभी भी रिपोर्टिंग वाले सिरे को नहीं पकड़ते। बस डेस्क बनाकर जिम्मेदारी दे दी जाती है कि डेस्क खबर को संपादित और ठीक करें। रिपोर्टर को बहुत कम बताया जाता है कि गलतियां कहां हो रही हैं। सुबह अखबार में गलती मिलने पर डेस्क के पत्रकार को ही पकड़ा जाता है। अनेक बार रिपोर्टर को पता ही नहीं लग पाता कि उसने क्या गलती की है। यहां रिपोर्टर से तात्पर्य उन संवाददाताओं से है जो ब्यूरो ऑफिस से खबरें भेजते हैं। कई बार मुख्यालय पर तैनात रिपोर्टर भी खूब गलतियां करते हैं।

संपादक जब-तब ब्यूरो में जाकर बैठक लेते हैं। इन बैठकों में अखबार के प्रसार समेत अन्य अनेक मुद्दों पर चर्चा होती है पर लेखनी के बारे में बहुत कम चर्चा होती है। इसी का नतीजा यह है कि हिन्दी अखबारों में वही गलतियां बार-बार दिखाई देती हैं, जो दशकों से होती चली आ रही हैं। रिपोर्टर गलतियां करते रहते हैं और डेस्क के पत्रकार (अगर काबिल हैं तो) उन्हें सही करते रहते हैं। यदि किसी अखबार में डेस्क पर भी काबिल व्यक्ति नहीं बैठे हैं तो गलतियां यूं ही चली जाती हैं।

यहां ऐसी ही कुछ गलतियों की तरफ ध्यान दिलाना चाहूंगा जो पत्रकारों से अक्सर और अनजाने में हो रही हैं। छोटा, बड़ा हर पत्रकार इस तरह की महत्वपूर्ण गलतियां या चूक कर जाता हैं। इन गलतियों से खबर तो हास्यापस्द हो ही जाती है, कई बार वह अपना अर्थ भी खो देती हैं।

'बताया' और 'कहा' में अंतर नहीं करते


इस वाक्य पर गौर करिए- याकूब कुरैशी ने अखबार से बातचीत में बताया कि अमेरिका मुसलमानों का दुश्मन है। 
अक्सर पत्रकार खबर लिखते वक्त 'बताया' और 'कहा' में भेद भूल जाते हैं। 'बताया' शब्द का इस्तेमाल तब होता है जब वक्ता कोई जानकारी देता है। जैसे कांग्रेस के प्रवक्ता ने बताया कि उनकी पार्टी के संगठनात्मक चुनाव दिसंबर में होंगे। अमूमन पहले से प्रचारित या अस्तित्व में आ गई बात के लिए 'बताया' शब्द नहीं आएगा। अमेरिका मुसलमानों का दुश्मन है, ये किसी की निजी राय है। ये कोई जानकारी नहीं है। इसलिए यहां 'बताया' के स्थान पर 'कहा' शब्द का प्रयोग होना चाहिए था।

मृतक को जिंदा कर देते हैं


कुछ पंक्तियां देखिए- बदमाशों ने अंधाधुंध फायरिंग की जिससे कैलाश की मौके पर ही मौत हो गई। मृतक के परिजनों ने बताया कि मृतक घटना से कुछ ही देर पहले बाजार से बेटी की शादी के लिए खरीदारी करके आया था। बदमाशों को देखकर मृतक ने भागने की भी कोशिश की, लेकिन विफल रहा।
अक्सर पत्रकार खबर में लिखते हैं कि मृतक ये कर रहा था या मृतक ने ऐसा किया। आखिर मरा हुआ व्यक्ति कैसे कुछ कर सकता है? भूतकाल की घटनाओं के वर्णन में मृतक शब्द का इस्तेमाल बिल्कुल गलत है। यहां हम मृतक का नाम ही इस्तेमाल करें। जैसे- कैलाश के परिजनों ने बताया कि वह घटना से कुछ ही देर पहले बाजार से बेटी की शादी के लिए खरीदारी करके आया था।

पूरा होने से पहले ही वाक्य खत्म


यह वाक्य देखिए- रामदीन बहुत तेज दौड़ा। जबकि वह बुखार में तप रहा था।
अनेक पत्रकार ऐसे वाक्य लिखते हैं जिनके पूरा होने से पहले ही उनमें पूर्ण विराम आ जाता है। यहां वाक्य 'तप रहा था' पर खत्म हुआ लेकिन 'जबकि' से पहले भी पूर्ण विराम लगा दिया गया। 'जबकि', 'जो', 'लेकिन', 'जिनका' जैसे वाक्यों को जोड़ने वाले शब्दों से पहले कभी भी पूर्ण विराम नहीं होना चाहिए। इनसे पहले कॉमा यानी अर्द्धविराम का इस्तेमाल करिए या फिर कुछ भी मत लगाइए। रामदीन बहुत तेज दौड़ा, जबकि वह बुखार से तप रहा था या फिर रामदीन बहुत तेज दौड़ा जबकि वह बुखार से तप रहा था।

'ने', 'के''का''से' करते हैं परेशान


वाक्यों को जोड़ने वाले ये अक्षर बहुत महत्वपूर्ण हैं, जिनका इंट्रो लिखते वक्त गलत इस्तेमाल करने से अक्सर वाक्य गड़बड़ा जाते हैं। ये वाक्य देखिए- कार्यक्रम के उद्घाटन अवसर पर मुख्य अतिथि ने संस्था के पूर्व सदस्यों को सम्मानित भी किया गया। 
अक्सर पत्रकार लंबे वाक्य में 'ने' अक्षर के पूरक शब्द 'किया' 'दिया' आदि का ध्यान नहीं रख पाते और 'गया' शब्द अतिरिक्त लगा देते हैं। ऐसा ही 'के', 'का' और 'से' के इस्तेमाल में होता है। इसीलिए कोई वाक्य लिखते समय उसके शुरू और अंत में ये जरूर देखना चाहिए कि  'ने', 'के', 'से' आदि का बाकी शब्दों से तारतम्य सही बैठ रहा है या नहीं।

आयोजन आज है या कल पता ही नहीं चलता


जब भी किसी खबर में तारीख या दिन का उल्लेख होता है तो कई पत्रकार गलती कर जाते हैं। उदाहरण के रूप में शनिवार 19 जनवरी की शाम को एक पत्रकार खबर लिख रहा है। खबर में ये जानकारी दी जानी है कि कोई क्रिकेट प्रतियोगिता सोमवार 21 जनवरी से शुरू होगी। अक्सर पत्रकार लिख जाता हैं- आयोजक ने आज प्रेस कान्फ्रेंस में जानकारी दी कि क्रिकेट प्रतियोगिता कल से शुरू होगी। 
अखबार चूंकि अगले दिन यानी रविवार सुबह को पाठक के पास पहुंचता है,  इसलिए इसे पढ़कर भ्रम हो जाता है कि प्रतियोगिता रविवार से शुरू होगी या सोमवार से। बेहतर यही है कि हम खबर में आज या कल के बजाए दिन और तारीख का इस्तेमाल करें। जैसे- आयोजक ने शनिवार को प्रेस कान्फ्रेंस में जानकारी दी कि क्रिकेट प्रतियोगिता सोमवार 21 जनवरी से शुरू हो रही है। शीर्षक यानी हैडिंग को हम उस दिन के हिसाब से लगाते हैं जिस दिन अखबार पाठक के हाथ में जा रहा होता है। यानी अखबार रविवार सुबह पहुंचेगा तो हम खबर के शीर्षक में सोमवार के लिए कल का इस्तेमाल कर सकते हैं। 

मौत कभी संदिग्ध नहीं होती


अक्सर शीर्षक में लिख दिया जाता है- सुभाष नगर में श्रमिक की संदिग्ध मौत। 
वास्तव में मौत तो हो गई। उसमें तो कोई संदेह है ही नहीं। संदिग्ध तो हालात, स्थितियां, परिस्थितियां होती हैं। इसलिए संदिग्ध मौत के बजाय संदिग्ध हालात में मौत, संदिग्ध स्थितियों में मौत लिखा जाना चाहिए।

तत्वावधान का नहीं है विधान


कोई भी व्यक्ति बोलचाल में 'तत्वावधान' शब्द का इस्तेमाल नहीं करता। फिर भी बहुतायत में खबरों के इंट्रो में इस शब्द का प्रयोग किया जाता है, जबकि इससे आसानी से बचा जा सकता है। 'द्वारा' शब्द भी बोलचाल का नहीं है, पर कभी-कभी इससे बचा नहीं जा सकता, लेकिन तत्वावधान से आसानी से बचा जा सकता है। अक्सर लिखा जाता है- भजन संध्या का आयोजन श्रीराम संकीर्तन मंडल के तत्वावधान में किया जा रहा है। 
इसे बड़ी आसानी से हम यूं लिख सकते हैं- भजन संध्या श्रीराम संकीर्तन मंडल करा रहा है या भजन संध्या श्रीराम संकीर्तन मंडल की तरफ से हो रही है।

'इस अवसर पर' और 'उन्होंने कहा' से बहुत लगाव है


ये दो शब्द ऐसे हैं, जिनका किसी खबर में बार-बार और बेवजह इस्तेमाल होता है। बार-बार 'उन्होंने कहा' 'उन्होंने कहा' लिखकर हम यह बताना चाहते हैं कि यह बात फलाने व्यक्ति कह रहे हैं, लेकिन एक पैराग्राफ में सिर्फ एक बार 'उन्होंने कहा' लिखने से ये तो नहीं हो जाएगा कि उस बात को कोई और व्यक्ति कहने लगेगा। इसलिए एक पैरा में एक ही बार 'उन्होंने कहा' का इस्तेमाल करना चाहिए। 'इस अवसर पर' को भी एक ही बार इस्तेमाल करना चाहिए।

गलत किया तो महंगा तो पड़ेगा ही


अखबार में हम अनेक बार अनजाने में ही गलत शब्दों का इस्तेमाल करने लगते हैं। कई बार खबर के वजन के अनुसार शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते। यानी खबर बहुत हल्की होती है और उसके लिए हम भारीभरकम शब्द प्रयोग करते हैं। या फिर खबर बहुत भारी होती है मगर हमारे शब्द हल्के रह जाते हैं।
दो शब्द हैं- महंगा पड़ना। इन्हें हम जाने-अनजाने खूब इस्तेमाल करते हैं। जैसे- मनचलों को महंगा पड़ा लड़की छेड़ना, चोरों को पुलिस लाइन में घुसना महंगा पड़ा। इस तरह नकारात्मक बातों में 'महंगा पड़ा' शब्द का प्रयोग गलत है। अगर कोई लड़की छेड़ने चला है यानी गलत काम करने चला है तो उसे तो यह काम महंगा पड़ना ही है। ये तो किसी क्रिया की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। कोई अच्छा काम करने चले और उसमें नुकसान उठाना पड़ जाए तब हम कहेंगे कि उसे यह महंगा पड़ा।

हमें किसी को पहाड़ पर नहीं चढ़ाना है


अखबारों में किसी अतिथि या मुख्य वक्ता के नाम का किसी खबर में जब दोबारा छोटे रूप में इस्तेमाल होता है तो 'श्री' या 'श्रीमती' शब्द का इस्तेमाल नहीं होता। जैसे 'श्री सिंह' या 'श्री यादव ने कहा' के बजाय 'यादव ने कहा' ही लिखा जाता है। इसके बावजूद कई पत्रकार ऐसा नहीं करते। वे बार-बार नाम से पहले श्री लगाते हैं।

बलात्कार पीडि़ता का नाम नहीं देना है


बलात्कार की खबर में पीडि़ता की पहचान नहीं दी जाती है। यानी न सिर्फ उसका नाम नहीं दिया जाता, बल्कि उसके परिजनों का नाम भी नहीं दिया जाता है। कई अखबार छेड़खानी जैसी खबरों में भी इस नियम का पालन करते हैं, लेकिन पर्याप्त निगरानी के अभाव में उनमें काम करने वाले पत्रकार इन नियमों का अक्सर उल्लंघन कर जाते हैं।

अधिकारी का काम है निरीक्षण करना


अखबारों में किसी अधिकारी के वक्तव्य से शीर्षक बनाने से परहेज बरतने का नियम है। इसीलिए अधिकारी का वक्तव्य या उसका नाम शीर्षक में तभी होना चाहिए जब वह कोई फैसला ले या ठोस कार्रवाई करे। खबर के अंदर भी अधिकारी या अतिथि के गुणगान से बचना चाहिए। भाषण में 'ये होना चाहिए' जैसी सतही चीजों को कम करके ठोस बातों और फैसलों पर फोकस करना चाहिए। ये सब लिखित, अलिखित नियम होने पर भी अनेक पत्रकार अधिकारियों के निरीक्षण पर हैडिंग लगाते हैं और उनका अनावश्यक भाषण छापते हैं। अरे भई, निरीक्षण करना तो अधिकारी का काम है। उसे तो वह करेगा ही।

आरोपी से भी पूछ लीजिए


'क' ने 'ख' पर कोई आरोप लगाया। हमने 'क' के सारे आरोप छाप दिए और 'ख' से उसका पक्ष पूछा ही नहीं। ऐसा सभी अखबारों के पत्रकार खूब कर रहे हैं। ऐसी खबरों से बचा जाना चाहिए। 'ख' की प्रतिक्रिया लिए बिना कुछ विशेष परिस्थितियों में तब खबर दी जा सकती है जब किसी अथॉरिटी (पुलिस, प्रशासनिक अधिकारी या संस्था, सरकार) ने 'ख' के खिलाफ कोई कार्रवाई कर दी है। कार्रवाई नहीं हुई, 'ख' का पक्ष भी नहीं लिया जा सका और खबर महत्वपूर्ण भी है यानी उसे रोका नहीं जा सकता। ऐसी स्थिति में हम आरोपी यानी 'ख' की पहचान गुप्त रखकर खबर दे सकते हैं।

नामजद है तो क्या हुआ


राष्ट्रीय स्तर पर बड़े मामलों में पुलिस में रिपोर्ट दर्ज होने पर आरोपी का नाम खूब छपता है। स्थानीय स्तर पर भी महत्वपूर्ण मामलों में ऐसा होता है। ऐसा इसलिए होता है कि बड़े मामले गंभीर और पुख्ता किस्म के होते हैं। इसके बनिस्पत हर छोटे-छोटे मामले में केवल नामजद रिपोर्ट होना ही आरोपी का नाम देने के लिए पर्याप्त नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि स्थानीय स्तर पर लोग अनेक झूठे मुकदमे दर्ज कराते हैं और उनमें वे नाम भी लपेटते हैं जो मौके पर थे ही नहीं। इसीलिए सामान्य स्थितियों में गिरफ्तारी होने या हिरासत में लेने से पहले नामजद व्यक्ति का नाम नहीं देना चाहिए। इस नियम के बावजूद अखबारों में धड़ल्ले से रिपोर्ट में नामजद लोगों के नाम छपते हैं।

अरे भई, बाप की क्या गलती है


कोई किशोर या युवक किसी अपराध में पकड़ा गया तो पुलिस कार्यवाही में उसके पिता का नाम दर्ज होता है, लेकिन हमें खबर में नाहक अभियुक्त के पिता का नाम नहीं घसीटना चाहिए। पिता का उस अपराध में कोई दोष नहीं होता, इसलिए पिता का नाम नहीं देना चाहिए। हां, उसका पेशा दे सकते हैं। जैसे- नामी बिल्डर का बेटा चेन झपटते दबोचा गया। इस नियम का पालन भी अखबारों में होता दिखाई नहीं देता।

हंगामा, बवाल, सनसनी, हड़कंप, घेराव, हाहाकार का महत्व समझिए


इन भारी शब्दों को पत्रकार बंधुओं ने इतना हल्का बना दिया है कि हर खबर में इनका इस्तेमाल बहुतायत से होता है। किसी मोहल्ले में थोड़ी देर बिजली नहीं आई तो हाहाकार मच जाता है। यदि कयामत जैसी चीज आ जाएगी तो आप क्या मचाएंगे? फोटोग्राफर के कहने पर प्रदर्शन कर रहे कुछ लोगों ने हाथ उठाकर दो-चार नारे क्या लगा दिए, खबर में तुरंत 'हंगामा' हो जाता है। हर खबर सनसनी फैला देती है या फिर हड़कंप मचा देती है। फोटो में चार छुटभैये नेता अफसर के सामने बैठकर बात कर रहे होते हैं और खबर तथा फोटो परिचय बताता है कि अफसर का घेराव किया गया।

कुछ और नियम जिनका पालन होना चाहिए


  • किसी व्यक्ति की उम्र बताने के लिए पूरा वाक्य इस्तेमाल नहीं होता। उम्र कोष्ठक में (45) लिखी जानी चाहिए। 'वह 85 वर्ष के थे' जैसे पूरे वाक्य का इस्तेमाल विशिष्ट व्यक्तियों की उम्र बताने में ही किया जाता है।
  • इकाई यानी एक अंक की संख्या हमेशा शब्दों में लिखनी चाहिए। जैसे- एक, दो, पांच, नौ। इसके बाद की संख्याएं अंक में लिखें- जैसे 10, 11, 15 आदि।
  • शीर्षक में 'द्वारा' और 'व' शब्द के इस्तेमाल से बचना चाहिए क्योंकि ये दोनों ही शब्द बोलचाल के दौरान इस्तेमाल नहीं होते। खबर में भी द्वारा से बचना चाहिए, हालांकि हर बार ऐसा हो नहीं पाता है।
  • कई गलतियां 'इ' और 'ई' की वजह से होती हैं। अंग्रेजी के जिन शब्दों के अंत में इ या उ की ध्वनि निकलती है, उनमें आम तौर पर उनके दीर्घ रूप का इस्तेमाल किया जाता है। जैसे आई, माई, नाऊ, हाई। इसी तरह यदि इ अक्षर किसी शब्द के बीच में आता है तो ज्यादातर वह छोटी इ के रूप में ही लिखा जाता है। जैसे- ड्राइवर, साइकिल, लाइन आदि। लगभग सभी अखबारों में इस तरह के शब्दों को लेकर बहुत अराजकता की स्थिति है। एक ही अखबार में हमें 'ड्राईवर' भी देखने को मिलता है और 'ड्राइवर' भी। वर्तनी को लेकर तो खैर अखबारों में बिल्कुल भी एकरूपता नहीं है। 
  • अनेक शब्दों को (जैसे अमरीका, अमेरिका, नयी दिल्ली, नई दिल्ली, जायेगा, जाएगा, अंतरराष्ट्रीय, अंतरर्राष्ट्रीय आदि) हर अखबार अलग-अलग तरीके से इस्तेमाल कर रहा है। इस पर अलग से विचार की जरूरत है। हिन्दी मीडिया में भाषा और वर्तनी को लेकर एकरूकता की सख्त जरूरत है।
- लव कुमार सिंह

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