Do the achievements of the Modi government get ignored due to the noise of 'Godi Media'?
Did the concept of 'Godi media' harm Modi rather than benefit?
इस वक्त देश में मीडिया के तीन वर्ग स्पष्ट रूप
से दिखाई देते हैं।
एक वर्ग रवीश कुमार, पुण्य प्रसून वाजपेयी, सिद्धार्थ वरदराजन एंड कंपनी और टेलीग्राफ जैसे अखबारों का है जो स्पष्ट रूप से मोदी सरकार की आलोचना करता है और भूले से भी किसी अच्छे काम की प्रशंसा नहीं करता। पत्रकारों के इस वर्ग का पत्रकारिता के अतिरिक्त भी अपना एक एजेंडा है। पत्रकारों का यह वर्ग सरकार की आलोचना में अब इतना आगे बढ़ गया है कि वह चाहकर भी वापस नहीं लौट सकता या लौट नहीं पाता क्योंकि सरकार के किसी अच्छे काम की तारीफ से उसे अपने प्रशंसकों या मोदी विरोधियों के रुठने का खतरा रहता है। इस वर्ग को स्वयं भी यह आशंका रहती है कि सरकार के किसी काम की तारीफ करने पर कहीं उसे भी 'गोदी मीडिया' न कह दिया जाए, जबकि यह शब्दावली भी इसी वर्ग की दी हुई है।
दूसरे वर्ग में सुधीर चौधरी, अर्नब गोस्वामी, रजत
शर्मा एंड कंपनी को रख सकते हैं। पत्रकारों का यह वर्ग बेशक मोदी सरकार की आलोचना कम करता है या नहीं करता है लेकिन चूंकि पहले वर्ग ने इन पत्रकारों को 'गोदी
मीडिया' का नाम दे दिया है, इसलिए ये स्वयं को इस ठप्पे से मुक्त कराने की
कोशिश में खुले स्वर से सरकार का गुणगान भी नहीं करते। ये बस विपक्ष पर हमलावर
रहते हैं।
तीसरे वर्ग में मीडिया का अखबारी पत्रकारिता वाला हिस्सा मुख्य रूप से आता है। साथ में इस वर्ग में 'एबीपी न्यूज', 'न्यूज 24', 'आज तक' जैसे चैनलों के अनेक पत्रकार भी आ जाते हैं। हालांकि रवीश कुमार वाला मीडिया का पहला वर्ग इन्हें भी 'गोदी मीडिया' के घेरे में ही लपेट लेता है, जबकि हकीकत यह है कि मीडिया का यह वर्ग अपनी तरफ से संतुलन रखने की काफी कोशिश करता है और इस चक्कर में कभी भाजपा समर्थकों तो कभी कांग्रेस समर्थकों के कोप का शिकार बनता है।
यह वर्गीकरण से यह स्पष्ट नजर आता है कि मीडिया का पहला वर्ग अपने खास एजेंडे वाली पत्रकारिता की वजह से मोदी सरकार के अच्छे कामों की भी तारीफ नहीं करता, जबकि मीडिया का दूसरा और तीसरा वर्ग स्वयं को ‘गोदी मीडिया’ के ठप्पे से बचाने के चक्कर में सरकार के किसी सही कदम की भी खुलकर प्रशंसा नहीं कर पाता है। इसी ठप्पे से बचने के लिए यह तीसरा वर्ग मौका मिलने पर सरकार की खूब आलोचना भी करता है। इसका नतीजा यह होता है कि सरकार की बड़ी उपलब्धियों की भी खुलकर चर्चा नहीं हो पाती है।
इसका स्पष्ट रूप से पता हमें 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की दोबारा जीत के बाद लगता है। मोदी की दोबारा जीत के बाद एक विश्लेषण में स्वयं नरेंद्र मोदी के कटु आलोचक वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता ने माना कि शायद उनकी और उनके साथियों की नजरें मोदी की उपलब्धियों को देख ही नहीं पाईं या इन उपलब्धियों को नजरअंदाज कर दिया गया।
अपने इस बयान में शेखर गुप्ता ने गरीबों को मुफ्त गैस सिलेंडर और मुद्रा लोन योजना के रूप में दो उदाहरण भी प्रस्तुत किए।
मोदी सरकार ने छह सालों के दौरान करोड़ों रुपये
मुद्रा लोन के रूप में छोटे-छोटे काम करने वाले लोगों में बांट डाले। ये लोन शिविर
लगाकर बांटे गए और इनमें भाई-भतीजावाद भी नहीं देखा गया। हालांकि विपक्ष और मोदी
के आलोचक पत्रकारों ने मुद्रा लोन योजना को बेकार की योजना करार दिया लेकिन जब
2019 में मोदी फिर से जीते तो शेखर गुप्ता ने कहा कि हमने शायद मोदी सरकार की लोक
कल्याणकारी योजनाओं के प्रभाव की अनदेखी की।
गुप्ता ने कहा कि स्वयं मुझे लगता था
कि मुद्रा लोन बकवास है। ये सब नकली होंगे। लेकिन मेरे पास (गुप्ता के पास) आजमगढ़
के 50 किलोमीटर दूर का एक वीडियो है जिसमें एक दलित ने कहा कि उसे 50 हजार रुपये
का लोन मिला। उससे उसने चाय की दुकान खोली। अब वह हर महीने 1300 रुपये लोन के रूप
में चुकाता है। इस दलित का वीडियो देखकर गुप्ता वापस आए तो डाटा की जांच की तो
उन्हें पता चला कि अभी तक यानी 2019 के आसपास तक 4.81 करोड़ लोगों को 2.1 लाख
करोड़ रुपये मुद्रा लोन के रूप में दिए जा चुके थे।
धारा 370 और राम मंदिर निर्माण भारत में स्वतंत्रता के बाद के दो सबसे बड़े मुद्दे थे। इनके कारण देश की राजनीति हमेशा गर्म रहती थी। दंगे भी हुए, लोगों की जानें गईं। लेकिन फिर लोगों ने देखा कि एक ही वर्ष में कश्मीर से धारा 370 हट गई और अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का रास्ता भी साफ हो गया। 'गोदी मीडिया' के ठप्पे से बचने के लिए मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा इन दो अति महत्वपूर्ण कामों के प्रभाव को वो तवज्जो नहीं दे सका जो दी जानी चाहिए थी। उधर मीडिया के पहले वर्ग को तो इन कामों की आलोचना करनी ही थी। उधर हम भारतीयों का यह स्वभाव भी है कि जब तक कोई समस्या रहती है तो वह हमें हिमालय जैसी विशाल नजर आती है और जब वह नहीं रहती तो लगता है जैसे कुछ समस्या थी ही नहीं।
पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि यदि 'गोदी मीडिया' का शोर नहीं होता और 2014 से पहले का समय होता और कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री के रूप में (चाहे राहुल गांधी, मायावती, ममता बनर्जी या कोई और) कश्मीर से धारा 370 हटा देता, उसके शासन में राम मंदिर निर्माण का रास्ता साफ हो गया होता, उसने गरीबों को आठ करोड़ से ज्यादा गैस सिलेंडर मुफ्त दिए होते, 2 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का मुद्रा लोन निम्न मध्यम वर्ग में बांट दिया होता, तीन तलाक समाप्त कर दिया होता, जीएसटी जैसा कर सुधार लागू किया होता, लाखों मुखौड़ा कंपनियों के शटर बंद कर दिए होते, डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर से सीधे लोगों के खातों में पैसे दिए होते और इससे कई लाख करोड़ रुपये बचाए होते, वन रैंक वन पेंशन देेने, अधिकांश भारतीयों के खाते खोलने का काम किया होता, आयुष्मान भारत जैसी स्वास्थ्य योजना ले आता, स्वच्छता को एक आंदोलन का रूप दे दिया होता, देशभर में शौचालय का रिकार्ड बना दिया होता, उत्तर-पूर्व भारत में और बांग्लादेश में ऐतिहासिक समझौतों को अंजाम दिया होता, विदेशों में भारत का नाम ऊंचा किया होता और पाकिस्तान में दो-दो बार सर्जिकल स्ट्राइक की होतीं तो मीडिया ऐसे व्यक्ति को निश्चित ही सर्वकालिक महान प्रधानमंत्री का खिताब देने से नहीं हिचकता। खासकर यदि कोई कांग्रेसी प्रधानमंत्री ये काम करता तो उसे निश्चित ही महान प्रधानमंत्री की श्रेणी में रख दिया जाता।
2014 से पहले के दौर को देखें तो मीडिया में यह बंटवारा था ही नहीं। इंडियन एक्सप्रेस समूह को छोड़कर सारा मीडिया सरकार के अच्छे कामों की तारीफ करने में हिचकता नहीं था और तब उस पर 'गोदी मीडिया' का ठप्पा भी किसी ने नहीं लगाया। अपने समय के बेहतरीन पत्रकार माने गए राजेंद्र माथुर ने समय-समय पर गुण-दोष के आधार पर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की आलोचना की तो खूब-खूब प्रशंसा भी की, लेकिन उन्हें किसी ने 'गोदी मीडिया' का नाम नहीं दिया। यही काम उस समय के अन्य पत्रकारों ने भी किया।
इस प्रकार यदि
उपलब्धियों की प्रशंसा के आधार पर देखें तो 'गोदी मीडिया' जैसी शब्दावली से नरेंद्र मोदी
को नुकसान ही ज्यादा हुआ है, क्योंकि अब नरेंद्र मोदी की जरा सी तारीफ का मतलब है
कि आपको ‘गोदी मीडिया’ नामक गाली दे दी जाएगी। इसीलिए आज के तथाकथित ‘गोदी मीडिया’
के वर्ग में शामिल पत्रकार भी खुलकर सरकार के कामों की प्रशंसा नहीं कर पाते हैं।
- लव कुमार सिंह
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यदि राजेंद्र माथुर आज जीवित होते तो क्या उन्हें भी 'गोदी मीडिया' और 'अंधराष्ट्रवादी' करार दे दिया जाता?
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