Thursday, 21 May 2020

# Hashimpura Kand : दंगा, हिंदू-मुसलमान और पीएसी

# Hashimpura Kand: Riot, Hindu-Muslim and PAC

  • नौकरी का ज्यादातर हिस्सा पीएसी में बिताने वाले एक रिटायर्ड पुलिस अधिकारी (जो लेखक के परिचित भी हैं) से मेरठ के हाशिमपुरा कांड  और पीएसी  के संबंध में पहले भी कई बार चर्चा हुई थी। हाशिमपुरा कांड में दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद यहां प्रस्तुत है इस रिटायर्ड पुलिस अधिकारी की कुछ चुनिंदा टिप्पणियां। 
  • A retired police officer (who is also familiar with the author), who spent most of his time in the PAC, had discussed several times before about the Hashimpura case of Meerut and PAC. After the decision of the Delhi High Court in Hashimpura case, here are some select comments of this retired police officer.


"21-22 मई 1987 की रात मेरठ के हाशिमपुरा क्षेत्र के करीब चार दर्जन लोगों के साथ जो अपराध हुआ, उसकी जितनी निंदा की जाए वह कम है। इस जघन्य अपराध को करने वाले लोगों को उम्र कैद की सजा नाकाफी मालूम पड़ती है। हाशिमपुरा कांड से पीएसी यानी प्रोवेंशियल आर्म्ड कांस्टेबलरी की साख को बहुत बट्टा लगा।"

"मैंने पुलिस की अपनी नौकरी का ज्यादातर हिस्सा पीएसी में व्यतीत किया। मैं इस बात से इनकार नहीं करता कि पीएसी में सांप्रदायिक सोच रखने वाले जवान या अधिकारी नहीं रहे होंगे या नहीं हैं, लेकिन यहां मैं अपनी और मेरे जैसी सोच रखने वाले ज्यादातर पीएसी अधिकारियों व जवानों की बात कर रहा हूं।"

"अपनी नौकरी के दौरान उत्तर प्रदेश में हुए अनेक दंगों में मेरी ड्यूटी लगी। 2001 के गुजरात के दंगे और 2013 के मुजफ्फरनगर के दंगे तो नई सदी के दंगे थे, लेकिन 1960 के दशक से 1990 के दशक तक उत्तर प्रदेश में जो भी दंगे हुए और जिनमें मुझे ड्यूटी निभानी पड़ी उनमें से अधिकांश दंगों का सच या ट्रेंड यही था कि जब हम मौके पर पहुंचे तो हमने जिस पक्ष को भारी पाया वह मुस्लिम पक्ष था। इसका एक स्वाभाविक कारण भी था। अल्पसंख्यक होने के कारण कई मुस्लिम अनजानी आफत के लिए तैयारी रखते थे और रखते हैं। हमने तलाशी के दौरान अनेक मकानों पर पत्थरों और अन्य फेंकी जा सकने वाली या किसी पर वार कर सकने वाली चीजों के ढेर देखे। किसी भी दंगे में हिंदू भले ही बाद में संख्या में एकजुट हो गए हों और भारी पड़ गए हों, लेकिन शुरुआत में उन्हें नुकसान ही उठाना पड़ा है। ऐसा मेरा आंकलन है जो मेरे द्वारा देखे गए दंगों पर आधारित है।"

"आप कल्पना करें और बताएं कि दंगा हो रहा है। आप एक पुलिस अधिकारी के रूप में मौके पर पहुंचे हैं। आप स्वयं बताएं कि आप किस पर लाठी पहले चलाएंगे? जो पीट रहा है उस पर या जो पिट रहा है उस पर? जाहिर है कि आप पहले उसकी तरह रुख करेंगे जो पीट रहा है या जो हावी दिखाई दे रहा है। हमने हर बार इसी प्रकार से कार्रवाई की और धीरे-धीरे समय बीतने के साथ यह प्रचारित होने लगा कि पीएसी सांप्रदायिक आधार पर कार्रवाई करती है, जबकि हकीकत यह थी कि जहां हमने किसी हिंदू को दंगा करते देखा तो उसे भी उसी तरह खदेड़ा, जिस प्रकार किसी मुस्लिम दंगाई को खदेड़ा। कम से कम पीएसी के कंपनी कंपाडर के रूप में मैंने और मेेरे मातहत जवानों ने तो यही किया। मेरा मानना है कि अधिकांश अधिकारियों और जवानों ने यही किया।"

"मेरठ के हाशिमपुरा कांड से पहले पीएसी  के बारें में जो चर्चाएं थी, उन्हें राजनीतिक आरोपों से ज्यादा और कुछ नहीं माना जाता था, लेकिन हाशिमपुरा कांड ने इन आरोपों को पुख्ता कर दिया और पीएसी की साख को बहुत नुकसान पहुंचाया। इसी के बाद आरएएफ जैसे बलों का गठन हुआ।"

"एक समय अपने अनुशासन और प्रतिबद्धता के कारण उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश में भी पीएसी का बहुत रुतबा और नाम था। दंगों, चुनाव और प्राकृतिक आपदाओं के दौरान दूसरे राज्यों से विशेष रूप से पीएसी को भेजने की मांग की जाती थी। मुझे अच्छी तरह याद है कि 70-80 के दशक में किसी दंगे या विश्वविद्यालय आदि के बवाल के दौरान अखबार के रिपोर्टर अपनी रिपोर्ट में पीएसी का जिक्र कुछ इस प्रकार से किया करते थे- .

...छात्रों द्वारा आगजनी और बवाल जारी था कि तभी कोई चिल्लाया- "भागो पीएसी आ गई।" और इसी के साथ बहुत से बवाली मौके से भाग खड़े हुए। विश्वविद्यालय का माहौल थोड़ी ही देर में शांत हो गया।

या फिर

....दंगे की आग तभी बुझी जब मौके पर पीएसी पहुंच गई।"

" यानी उत्तर प्रदेश में पीएसी शांति स्थापित करने की गारंटी हुआ करती थी। लोग पीएसी के मौके पर पहुंचने को बहुत गंभीरता से लेते थे। लेकिन हाशिमपुरा जैसे कांड ने बहुत कुछ मिट्टी में मिला दिया। आपका एक क्षण का व्यवहार या भूल आपकी पूरी स्थिति को बदलकर रख देती है। लखनऊ में विवेक तिवारी को मारने वाला पुलिसकर्मी कुछ ही क्षण पहले एक सामान्य कर्मचारी था जो अपनी ड्यूटी निभा रहा था, लेकिन अगले ही क्षण हुई भयंकर गलती से उसने स्वयं को हत्यारों की श्रेणी में शामिल कर लिया। हाशिमपुरा में भी 1987 में कुछ ही घंटे पहले सेना और पीएसी के जवान घरों की तलाशी लेकर दंगा नियंत्रण की अपनी जिम्मेदारी निभा रहे थे, लेकिन थोड़ी ही देर बाद कई जवानों ने ऐसा अकल्पनीय फैसला कर लिया, जो दर्जनों परिवारों को जिंदगीभर का दुख दे गया। मारे गए लोगों के परिजन तो आज तक बिलख ही रहे हैं, अब जो लोग उम्र कैद काट रहे हैं, उनके परिजन भी बिलखेंगे। यानी इन जवानों ने अपने परिवारों को भी जिंदगीभर का दुख दे दिया।"

" निःसंहेद हाशिमपुरा में पीएसी बिल्कुल भी सही नहीं थी, लेकिन पीएसी हर दंगों में ऐसी ही थी, यह भी बिल्कुल सही नही है। पीएसी उत्तर प्रदेश का एक बहुत ही सक्षम अर्द्धसैनिक बल है, जिसके जवानों ने प्रदेश और देश की शानदार सेवा की है।"

प्रस्तुति- लव कुमार सिंह


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