Tuesday 8 September 2020

क्या आप जानते हैं कि साक्षर किसे माना जाता है? क्या आप जानते हैं कि अमेरिका साक्षरता की दौड़ में काफी पीछे है?

किसी देश की साक्षरता दर यह स्पष्ट करती है कि वह देश कितनी प्रगति कर रहा है, क्योंकि विकास के लिए, जीवन में आगे बढ़ने के लिए, विविध क्षेत्र की समस्याओं, बुराइयों आदि को दूर करने के लिए मनुष्य का शिक्षित होना जरूरी है। आइए देखते हैं कि दुनियाभर में साक्षरता की क्या स्थिति है।

साक्षर कौन माना जाता है?

भारत सरकार द्वारा तय परिभाषा के अनुसार जो भी 7 वर्ष या इससे अधिक आयु का व्यक्ति किसी भी भाषा को समझकर लिख या पढ़ सकता है, उसे साक्षर माना जाता है।

 

सबसे कम साक्षरता वाले देश

दुनिया के 25 सबसे कम साक्षरता वाले देशों में भारत के पांच पड़ोसी देश भी शामिल हैं। ये हैं अफगानिस्तान, भूटान, पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश। इनमें से अफगानिस्तान तो दुनिया के सबसे कम साक्षरता वाले देशों में दूसरे स्थान पर है।

यूनेस्को इंस्टीट्यूट फार स्टेटिक्स के 2015 के आंकड़ों के अनुसार अफगानिस्तान में केवल 28.1 प्रतिशत लोग ही साक्षर हैं और विश्व के सबसे कम साक्षर देशों में इसका स्थान दूसरा है। पहले स्थान पर दक्षिण सूडान है जहां पर केवल 27 प्रतिशत आबादी ही साक्षर है। तीसरे, चौथे और पांचवे स्थान पर क्रमशः बर्किन फासो (28.7), नाइजर (28.7) और माली (33.4) का नाम आता है।

सबसे कम साक्षर देशों की सूची में हमारा पड़ोसी भूटान 15वें नंबर पर है, जहां पर 52.8 प्रतिशत लोग साक्षर हैं। इसके ठीक बाद 16वें नंबर पर पाकिस्तान हैं जहां की साक्षरता दर 54.9 प्रतिशत है। नेपाल का स्थान इस सूची में 21वां है जहां 57.4 प्रतिशत लोग साक्षर हैं। नेपाल के ठीक बाद बांग्लादेश का स्थान है जहां पर 57.7 प्रतिशत आबादी साक्षर है।

उच्च साक्षरता वाले देश

अगर उच्च साक्षरता की बात करें तो दुनिया के 26 देशों की साक्षरता दर 100 प्रतिशत है। शत-प्रतिशत साक्षरता वाले इन देशों में एंडोरा, फिनलैंड, होली-सी, लिचटेंस्टीन, लक्जमबर्ग, नार्वे, उत्तर कोरिया, लात्विया, एस्टोनिया, लिथुआनिया, अजरबैजान, पोलैंड, क्यूबा, ताजिकिस्तान, जॉर्जिया, आर्मेनिया, उक्रेन, कजाकिस्तान, स्लोवेनिया, बारबाडोस, रशियन फेडरेशन, तुर्कमेनिस्तान, बेलारूस, स्लोवेकिया, पलाऊ, उज्बेकिस्तान शामिल हैं।

करीब 30 देशों की साक्षरता दर 99 प्रतिशत है। इनमें टोंगा, किर्गीस्तान, माल्डोवा, क्रोएशिया, इटली, हंगरी, आस्ट्रेलिया, बेल्जियम, कनाडा, चेक रिपब्लिक, डेनमार्क, फ्रांस, जर्मनी, आइसलैंड, आयरलैंड, जापाना, मोनाको, नीदरलैंड, न्यूजीलैंड, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, तुवालू, ब्रिटेन, समोआ, एंडीगुआ एंड बारबूडा, त्रिनिडाड एंड टोबैगो, माइक्रोनेशिया, साइप्रस और रोमानिया शामिल हैं।

98 प्रतिशत की साक्षरता वाले देशों में मोंटेनेग्रो, मालदीव्स, बुल्गारिया, मार्शल आइलैंड, बोस्निया एंड हर्जेगोविना, मंगोलिया, उरुग्वे, आस्ट्रिया, अर्जेंटीना, सर्बिया, दक्षिण कोरिया, ग्रेनेडा, इस्राइल, स्पेन शामिल हैं।

कोस्टारिका, सैंट कीट्स एंड नेविस, अल्बानिया और चिली की साक्षरता दर 97 प्रतिशत है। थाइलैंड, कतर, ब्रूनेई, सैंट विंसेंट, सैन मारिनो, सिंगापुर, कुवैत और बहामास में साक्षरता दर 96 प्रतिशत है।

खास बात यह है कि दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश माने जाने वाले अमेरिका की साक्षरता दर 86 प्रतिशत है और यह इस मामले में दुनिया के अनेक देशों से काफी पीछे है। साक्षरता दर की 197 देशों की सूची में अमेरिका का नंबर 125वां है।

अगर दुनिया की बात करें तो दुनिया की कुल आबादी का 86.3 प्रतिशत साक्षर है।

भारत के दो पड़ोसी देश श्रीलंका और म्यांमार साक्षरता के मामले में बहुत आगे हैं और इनकी साक्षरता दर 92 प्रतिशत से भी ज्यादा है।

भारत की बात

जहां तक स्वयं भारत की बात है तो भारत की साक्षरता दर 74.04 प्रतिशत है। भारत में केरल सबसे साक्षर (93.91 प्रतिशत) राज्य है जबकि बिहार 63.82 प्रतिशत की साक्षरता दर के साथ सबसे नीचे है।

2011 की जनगणना के अनुसार भारत की साक्षरता दर 73 प्रतिशत थी। इसमें पुरुष साक्षरता दर का प्रतिशत 80.9 और महिला साक्षरता दर का प्रतिशत 64.6 है। 2001 के मुकाबले देश की साक्षरता दर में 8.16 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

 

जनगणना 2011 के अनुसार सबसे ज्यादा साक्षरता वाले राज्य

  • केरल-            94 प्रतिशत
  • लक्षद्वीप-      91.8 प्रतिशत
  • मिजोरम-       91.3 प्रतिशत
  • गोवा-             88.7 प्रतिशत
  • त्रिपुरा-            87.2 प्रतिशत

सबसे कम साक्षरता वाले राज्य

  • बिहार-          61.8 प्रतिशत
  • अरुणाचल-    65.4 प्रतिशत
  • राजस्थान-    66.1 प्रतिशत
  • झारखंड-       66.4 प्रतशत
  • आंध्र प्रदेश-    67.0 प्रतिशत

- लव कुमार सिंह

 

 

 

 

 

Sunday 6 September 2020

नक्सलियों की अदालत 'कंगारू कोर्ट' क्यों कहलाती है?

छ्त्तीसगढ़ के बीजापुर जिले से 5 सितंबर 2020 को एक दुखद खबर आई। बीजापुर जिले के बैलाडिला की तराई में बसे गांव पुसनार में नक्सलियों ने 4 सितंबर की सुबह कंगारू कोर्ट या जनअदालत लगाकर गांव के सरपंच के दामाद समेत चार लोगों की हत्या कर दी। क्षेत्र में चल रहे सड़क निर्माण कार्य में इन चारों लोगों के सहयोग करने से नकस्ली नाराज थे। उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान नक्सली कंगारू कोर्ट के जरिये सैकड़ों लोगों की हत्या कर चुके हैं। सवाल यह है कि नक्सलियों द्वारा लगाई जाने वाली ऐसी अदालतें ‘कंगारू कोर्ट’ क्यों कहलाती हैं?

दरअसल ‘कंगारू कोर्ट’ उस अदालत को कहते हैं जो किसी क्षेत्र में लागू होने वाले कानून और न्याय के मान्य नियमों की उपेक्षा करके लगाई जाती है। ‘कंगारू कोर्ट’ में किसी प्रकार के नियमों का पालन नहीं किया जाता है और पहले से निर्धारित फैसला ही थोपा जाता है। यह शब्द तब ज्यादा चलन में आया जब 1889 में कैलीफोर्निया में सोने की खुदाई के दौरान वहां हजारों आस्ट्रेलियाई लोगों का जमावड़ा हो गया। ऐसे में वहां हुए विवादों को हल करने के लिए जो कार्रवाइयां चलीं उन्हें ‘कंगारू कोर्ट’ कहा गया।

अब ‘कंगारू कोर्ट’ का अर्थ ऐसी अदालत से लगाया जाता है जिसमें प्रतिवादी यानी अभियुक्त का समर्थन कर रहे साक्ष्यों को जानबूझकर ध्यान में नहीं रखा जाता है यानी कंगारू की तरह साक्ष्य, सच्चाई या हकीकत के ऊपर छलांग लगा दी जाती है। ‘कंगारू कोर्ट’ से यह आशय भी है कि किसी मामले में बिना सोचे-विचारे एक छलांग मारने की तरह तुरंत फैसले पर आ जाना। ‘कंगारू कोर्ट’ का अर्थ कंगारू के पेट में लगी थैली से भी लगाया जाता है जिसका अर्थ है कि अदालत किसी की जेब में है। यह वाक्यांश इंग्लैंड, अमेरिका, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में काफी प्रचलित है।

1940 के दशक में नाजी जर्मनी में, 1930 के दशक में स्टालिन के सोवियत संघ में, 1979 में पोल पोट के कंबोडिया में और 1989 में रोमानिया की सेना ने अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए ‘कंगारू कोर्ट’ का प्रयोग किया।

खेलों में भी प्रयोग

‘कंगारू कोर्ट’ वाक्यांश का प्रयोग खेलों में भी होता है। अमेरिका में बेसबाल में खिलाड़ी यदि कोई गलती करता है, खेल या प्रैक्टिस के लिए देरी से आता है, खेल की सही ड्रेस नहीं पहनता है तो उस पर जुर्माना आदि लगाने वालों को ‘कंगारू कोर्ट’ कहा जाता है।

Friday 4 September 2020

छंटनी और बंदी की बेला में हिंदी के सबसे महंगे अखबार ने नया संस्करण खोल डाला

The country's most expensive Hindi newspaper opened a new edition in the period of layoffs and closure


अखबार 'प्रजातंत्र' के एक मुख्य पृष्ठ की झलकी।

आज के समय में जब हिंदी-अंग्रेजी के सभी छोटे-बड़े अखबारों में छंटनी की बेला है, अनेक संस्थानों में समय पर वेतन न मिलने या वेतन में कटौती की शिकायतें हैं, कई अखबारों के कई संस्करण बंद हो गए हैं और अनेक पुरानी पत्रिकाओं के एक के बाद एक बंद होने की खबरें आ रही हैं, किसी अखबार के नया संस्करण लांच होने की खबर पर विश्वास नहीं हो रहा है। लेकिन यह सच है और हिंदी अखबार 'प्रजातंत्र' का भोपाल संस्करण पिछले दिनों गणेश चतुर्थी पर शुरू हो गया। यह अखबार अक्टूबर 2018 में इंदौर से शुरू हुआ था और इसके बाद इसने अपना दूसरा संस्करण उज्जैन से शुरू किया था।

खास बात यह है कि यह अखबार आपको बाजार में नहीं मिलेगा। यानी यह रोडवेज बस अड्डे, रेलवे स्टेशन या बाजार में किसी स्टाल पर आपको नहीं मिलेगा। इसकी मार्केटिंग का अलग ही फंडा है। यह अखबार केवल उन्हीं लोगों को उपलब्ध होता है जो इसके पहले से ग्राहक बनते हैं। इस अखबार के बारे में मैंने 2018 में एक पोस्ट लिखी थी। पहले आप उसे पढ़ें तो आपको इस अखबार के बारे में काफी जानकारी मिलेगी। नीचे यह पोस्ट दी गई है-

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पत्रकारिता के क्षेत्र में अक्टूबर 2018 में एक बड़ी घटना की शुरुआत हुई हैहालांकि अभी यह नहीं कहा जा सकता कि इस घटना का अंजाम क्या होगा। बड़ी घटना यह है कि इंदौर से पत्रकार हेमंत शर्मा ने उस दौर में एक साथ दो अखबार शुरू किए हैंजिसे अखबारों के लिए संकट का दौर कहा जा रहा है। उस पर तुर्रा यह कि ये अखबार आम पाठक को पढ़ने को नहीं मिलेंगे। इन्हें वही लोग पढ़ सकेंगे जो पहले से वार्षिक शुल्क जमा कर देंगे। हिंदी अखबार के साथ अंग्रेजी का अखबार मुफ्त दिया जाएगा।

यह एक अलग मामला इसलिए भी है कि हिंदी में 'प्रजातंत्रऔर अंग्रेजी में 'फर्स्ट प्रिंटके नाम से अक्टूबर से शुरू किए गए ये अखबार सामान्य तरीके से नहीं निकले हैं। इनके लिए पहले बेहिसाब खर्चा करके भव्य दफ्तर तैयार किया गया है जिसे देखने वाले हिंदी-अंग्रेजी, किसी भी मीडिया हाउस का सबसे उम्दा दफ्तर करार दे रहे हैं।

इस दफ्तर में पत्रकारों के लिए कंप्यूटर नाम की वस्तु नहीं दिखाई देतीबल्कि सभी पत्रकारों को काम करने के लिए लैपटॉप दिए गए हैं। खबरों या स्टोरी के लिए इंदौर-मुंबई से अपने क्षेत्र के बड़े नाम जुटाए गए हैं।

कितने दाम, कितने ग्राहक, कितने पेज?


जब कोई अखबार खुलता है तो दूसरे अखबार तो उसके बारे में कुछ बताते नहीं हैं। उसके बारे में सोशल मीडिया पर ही जानने को मिल पाता है। अपने मुंहफट अंदाज के लिए प्रसिद्ध 'भड़ासवाले यशवंत भी इन अखबारों के लांचिंग समारोह में न्योते गए थे। यशवंत दूसरों की पत्रकारिता की ऐसी-तैसी करते रहते हैंलेकिन इंदौर जाकर वह हेमंत शर्मा के दफ्तर में इतना खो गए कि लांचिंग समारोह पर लंबा-चौड़ा लिखने के बावजूद यह नहीं पूछ पाए कि अखबार का वार्षिक ग्राहक शुल्क क्या है और आप कितने ग्राहकों से शुरुआत कर रहे हैंअखबार में कितने पेज हैंआपका बिजनेस प्लान क्या हैआदि-आदि।

‘ब्लैक एण्ड व्हाइट नाम’ की कंपनी बनाकर इन अखबारों को शुरू करने वाले कंपनी के एमडी हेमंत शर्मा का कहना है कि वे पाठकों के सामने खबरों का ढेर नहीं परोसेंगे। वे चुनिंदा खबरें पढ़वाएंगेलेकिन कायदे से पढ़वाएंगे। अखबार की कॉपी भी वह लाख-दो लाख नहीं चाहते। फिलहाल उनका लक्ष्य दस हजार-पंद्रह हजार का ही है। हेमंत शर्मा चाहते हैं कि ये जो दस-पंद्रह हजार पाठक होंगेवे इस बात पर फक्र करें कि वे ये अखबार पढ़ रहे हैं। 

क्या अखबार को स्टेटस के साथ जोड़ेंगे?


मुझे ऐसा लगता है कि हेमंत शर्मा का दिमाग यहां काम कर रहा है कि अखबार में अगर अलग और रोचक कंटेंट दिया जाए और साथ ही उपभोक्ता में यह एहसास भर दिया जाए कि वह इस भव्य दुकान से कुछ ऐसी चीज ले रहा है जो सामान्य व्यक्ति के पास नहीं है तो अखबार के लिए मुंहमांगे दाम देने वाले काफी पाठक मिल जाएंगे। इनमें अखबार को पढ़ने वाले पाठक तो होंगे हीसाथ ही ऐसे भी होंगे जो इसे केवल अपना स्टेटस दिखाने के लिए लेंगे।

हेमंत शर्मा

आज समाज में ऐसी मानसिकता खूब देखने को मिल रही है। बाजार में ज्यादातर ग्राहक आज उसी दुकान में घुसता है जो बड़ी भी है और भव्य भी है। आजकल लोगों में खरीददारी को लेकर या खाने-पीने को लेकर माल की चर्चा कम होती है और इसकी चर्चा ज्यादा होती है कि कहां से खरीदा या कहां खाया-पीया। माल उन्नीस-बीस चल जाएगालेकिन माल की जगह बढ़िया होनी चाहिए। उस जगह का नाम लेने पर व्यक्ति का स्टेटस कुछ ऊंचा नजर आना चाहिए। 

हेमंत शर्मा यदि आज के दौर की इस मानसिकता को भुनाने में कामयाब हो गए तो निश्चित रूप से उनका अखबार चल जाएगा। अगर वह मकानकारफर्नीचर आदि के बीच अखबार को भी स्टेटस की चीज बनाने में कामयाब हो गए तो अखबार निश्चित रूप से चल जाएगा। आखिर हमने समाज में ऐसे लोग भी देखें हैं जो यह बताने का अवसर ढूंढते हैं कि वे तो अंग्रेजी का अखबार पढ़ते हैं या उनके यहां तो अंग्रेजी का अखबार आता हैफिर भले ही वह उस अखबार को ठीक से पढ़ते भी न हों।

जहां तक पत्रकारिता की बात है तो तमाम आदर्श वाक्यों और वक्तव्यों के बावजूद यह लग रहा है कि इस अखबार में मसालेदार, उच्च जीवनशैली से जुड़ी खबरों पर ज्यादा जोर रहेगा। जो अखबार किसान, मजदूरों और आम आदमी के बीच नहीं जाएगा तो वह उन पर स्टोरी क्यों कर करेगा।

फिर भी, आज जब हम हिंदी के प्रमुख अखबारों दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, अमर उजाला आदि के दामों को लेकर पहले पेज पर ‘केवल 2 रुपये में’ जैसी जंग देखते हैं तो इंदौर में किए जा रहे इस प्रयोग पर हैरान होना स्वाभाविक है। इस प्रयोग के परिणामों को देखना बेहद दिलचस्प होगा।

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इस पोस्ट के कुछ दिन बाद पता चला है कि इन दोनों अखबारों की कीमत 10 रुपये है और अग्रिम लिया जाने वाला वार्षिक शुल्क 3600 रुपये है। हिंदी का अखबार ब्रॉड शीट पर 12 पेज का है जबकि अंग्रेजी अखबार टेबलॉयड आकार में 16 पेज का है। कह नहीं सकता कि अखबार का अभी भी दाम यही है या यह बढ़ा-घटा है। मध्य प्रदेश के पत्रकार ही इस बारे में सही जानकारी दे सकते हैं।

....तो क्या हेमंत शर्मा का फार्मूला कामयाब हो गया है? लगता तो ऐसा ही, वरना इस संकट भरे कोरोना काल में क्या कोई लस्त-पस्त अखबार अपना नया संस्करण शुरू कर पाता। यहां बताते चलें कि समाचार4मीडिया की खबर के अनुसार भास्कर समूह से आए धर्मेंद्र पैगवार 'प्रजातंत्र' के भोपाल संस्करण के संपादक बनाए गए हैं। अभी तक वह इस अखबार के लिए ब्यूरो चीफ की भूूमिका निभा रहे थे।

चलिये, जब अखबार का नया संस्करण खुला है तो कुछ पत्रकार साथियों को नौकरी भी जरूर ही मिली होगी। फिलहाल इसके लिए ही खुश हो जाइए।

- लव कुमार सिंह

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Thursday 3 September 2020

देश के सबसे बड़े शिक्षक और क्लास में 20 मिनट लेट...साथ ही दस मिनट पहले पीरियड खत्म!

Greatest teacher and used to come late in class...Still, used to cast magic on the students




शिक्षक दिवस के मौके पर महान शिक्षाविद् और देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जीवन के बारे में पढ़ते हुए एक रोचक तथ्य की जानकारी मिली।

विकीपीडिया पर बताया गया है कि जब राधाकृष्णन एक शिक्षक थेतब कक्षा में 15-20 मिनट देर से आते थे और पांच-दस मिनट पूर्व ही चले जाते थे। इसके बावजूद वे अपने छात्रों में बहुत लोकप्रिय थे और उनके पढ़ाने का तरीका छात्रों को बहुत पसंद था। लेट आने और जल्दी पीरियड खत्म करने के बारे में डॉ. राधाकृष्णन का कहना था कि कक्षा में उन्हें जो व्याख्यान देना होता थावह 20 मिनट के पर्याप्त समय में संपन्न हो जाता था। 

बहुत सारे शिक्षक अपने विषय के प्रकांड पंडित होते हैंलेकिन ऐसा देखने में आता है कि जब वे पढ़ाते हैं तो उनकी बातें छात्रों के सिर के ऊपर से गुजर जाती हैं। वे अपने समझाने के स्तर को छात्रों के स्तर तक नहीं ला पाते हैं। लेकिन डॉ. राधाकृष्णन ऐसे शिक्षकों से उलट थे। उनकी अपने विषय पर गहरी पकड़ थी। वे अपनी बुद्धि से परिपूर्ण व्याख्याओंआनंददायी अभिव्यक्तियों और हल्की गुदगुदाने वाली कहानियों से छात्रों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। वह जिस भी विषय को पढ़ाते थेपहले स्वयं उसका गहन अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गंभीर विषय को भी वह अपनी शैली से सरलरोचक और प्रिय बना देते थे।

देश के सबसे बड़े शिक्षक के बारे में इस जानकारी के बाद मुझे ध्यान आया अपने उन सहयोगी शिक्षकों का जिन्होंने अलग-अलग समय पर बातचीत के दौरान यह कहा कि एक घंटे का पीरियड बहुत ज्यादा होता है। न केवल शिक्षक के लिए बल्कि छात्रों के लिए भी। एक घंटे के दौरान न केवल छात्र विषय पर अपनी रुचि खो देते हैंबल्कि शिक्षक के लिए भी एक घंटे तक बोलना काफी मुश्किल भरा होता है।उल्लेखनीय है कि देश के कई विश्वविद्यालयों में एक पीरियड एक घंटे का होता है।

इस बारे में मेरा भी यही विचार है कि एक पीरियड के लिए एक घंटे का समय ज्यादा होता है। दरअसल प्रत्येक विषय या किसी विषय का प्रत्येक अध्याय इतना रोचक भी नहीं होता कि उसके बारे में कुछ व्यावहारिक कहानियां सुनाते हुए छात्रों को रोजाना एक घंटे तक बांधे रखा जा सके। कुछ विषय तो बहुत ही शुष्क होते हैं। 

फिर आज का समय भी डॉ. राधाकृष्णन वाला नहीं है। खासकर उच्च शिक्षण संस्थानों में छात्र-छात्राओं का ध्यान एक जगह केंद्रित करना काफी मुश्किल भरा होता है। आज हालत यह है कि शिक्षक अगर बोर्ड पर लिखने लगता है तो अक्सर छात्र या तो बातचीत में मशगूल हो जाते हैं या फिर उनकी नजरों के केंद्र में अपना मोबाइल होता है। "चुप रहिए", "शांत रहिये", "जिसे नहीं पढ़ना है, वह बाहर चला जाए" जैसे वाक्य आजकल की उच्च शिक्षा की कक्षाओं में अक्सर सुनने को मिल जाते हैं। 

मुझे याद है कि हमारे कॉलेज के दिनों में एक पीरियड शायद 35 या 40 मिनट का था। अब पता नहीं कैसे यह एक घंटे का कर दिया गया है। मुझे लगता है कि अगर पीरियड 30-35 मिनट का हो तो इससे न केवल पढ़ाने वाले का प्रदर्शन बेहतर हो सकता है बल्कि पढ़ने वाला भी ज्यादा ध्यान से शिक्षक की बात सुन सकता है। इसके अतिरिक्त ऐसा करने से एक दिन में ज्यादा विषय भी पढ़ाए जा सकते हैं और छात्रों को अन्य रोचक गतिविधियों में लगाया जा सकता है।

(नोट- यहां कही गई बातें केवल उन सम्मानित शिक्षकों और शिक्षा संस्थानों के लिए हैं जो छात्रों को पढ़ाने में रुचि लेते हैं। जिनकी पढ़ाने में ही रुचि नहीं है, उनके लिए इन बातों का कोई मतलब नहीं है।)

लव कुमार सिंह









जब सब कुछ बंद था तो जीडीपी और कहां जानी थी?

Where else was GDP to go when everything was closed?



जब 'सब कुछ' ही बंद था

तो सुंदरी 'जीडीपी' और कहां जानी है?

जब प्रेमी 'खर्चा' जमीन में मुंह गड़ाए पड़ा था

तो रसातल के सिवाय उसकी कहां जिंदगानी है?

 

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हमें तो इन प्रेमियों की हालत पता है, पता थी

सो दुखी तो हैं पर बल विहीन पेशानी है

क्या आप अनजान थे, अज्ञान थे? नहीं?

तो फिर आपके चेहरे पर क्यों हैरानी है?


(पेशानी- मस्तक, माथा)

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छोड़िए चिंता-विंता के नाटक को

आपके लिए तो यह खुशी की निशानी है

कोरोना से बहुत उम्मीदें हैं कुछ लोगों को

यह बीमारी थोड़े है, उनके 'युद्ध' की सेनानी है।

 

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छोड़िए और आपसे क्या शिकायत करें

आपको नहीं सुननी, बस अपनी सुनानी है

तभी तो 'रामगढ़' पर हमला 'गब्बर' ने किया 

और गुर्गे कहें 'ठाकुर' की कारस्तानी है।

 

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ना-ना 'ठाकुर' को क्लीनचिट नहीं है

आंख बंद कर, अकेले घुसेंगे तो भुजा तो कट जानी है

पर फिलहाल हमारी कोशिश 'जय-वीरू' बनने की है

बाकी बाद में देखेंगे कि ये 'ऊंगली' किस बटन पर दबानी है।

 

- लव कुमार सिंह


#GDP #IndianEconomy #Economy #अर्थव्यवस्था #विकासदर

 


नया मतदाता, कांग्रेस की तरफ क्यों नहीं आता?....आनंद शर्मा ने कांग्रेस की दुखती रग पर हाथ रख दिया

Why does the new voter not come to the Congress? 




कांग्रेस के वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा ने एक रोचक आंकड़ा पेश किया है, जिस पर कांग्रेस को गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान कुल मिलाकर करीब 18.5 करोड़ नए मतदाता चुनाव प्रक्रिया में शामिल हो गए, लेकिन कांग्रेस इसका जरा भी फायदा नहीं उठा सकी। कांग्रेस के वोट 2019 में 11.94 करोड़ रहे। ये लगभग 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को प्राप्त मतों जितने ही हैं। 2009 में कांग्रेस को 11.92 करोड़ वोट मिले थे।

हिंदी दैनिक ‘दैनिक जागरण’ को दिए एक साक्षात्कार में सोनिया गांधी को पत्र लिखने वाले 23 वरिष्ठ कांग्रेसियों में शामिल आनंद शर्मा ने कहा कि 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त देश में साढ़े दस करोड़ नए मतदाता चुनावी प्रक्रिया में भागीदार बने थे। 2019 के चुनाव में नए जुड़े मतदाताओं की संख्या आठ करोड़ थी। यानी दोनों चुनावों में कुल मिलाकर साढ़े अठारह करोड़ नए मतदाता बने, लेकिन कांग्रेस इसका कोई फायदा नहीं उठा सकी। यह तथ्य कांग्रेस की कमजोरी को उजागर करता है।

2014 की कहानी

आनंद शर्मा ने कहा कि 2014 में कांग्रेस को 10.69 करोड़ मत मिले थे। यानी उस चुनाव में साढ़े दस करोड़ नए वोटर बढ़ने के बावजूद कांग्रेस के वोट पिछले चुनावों (2009 में 11.92 करोड़) के मुकाबले 1.23 करोड़ कम हो गए।

2019 की कहानी

2019 में कांग्रेस को 11.94 करोड़ मत मिले थे। यानी 2019 में जहां नए मतदाता आठ करोड़ बने, लेकिन कांग्रेस अपने मतों में 2014 के मुकाबले केवल 1.25 करोड़ और 2009 के मुकाबले केवल दो हजार मतों की ही बढ़ोतरी कर सकी।

नए वोटर पूरी तरह भाजपा के साथ

इसके विपरीत भाजपा ने नए बने मतदाताओं का समर्थन दोनों हाथों से बटोरा। 2014 के चुनाव में भाजपा को 17.60 करोड़ वोट मिले। 2009 के चुनावों में भाजपा के वोट 7.84 करोड़ थे। इसका अर्थ है कि भाजपा ने अपने मतों में दोगुने से भी ज्यादा की वृद्धि कर ली। 2019 में भाजपा को 22.94 करोड़ वोट मिले। यानी इस बार भी भाजपा ने नए बने मतदाताओं में गहरी पैठ बनाई और अपने वोट में जबरदस्त इजाफा किया।

आनंद शर्मा को इस बात का अफसोस है कि उनके अनुसार अपने पहले कार्यकाल में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने नोटबंदी, जीएसटी समेत तमाम बड़ी गलतियां कीं, देश में रोजगार की हालत बहुत खराब रही, इसके बावजूद कांग्रेस इसका फायदा नहीं उठा सकी। वह नए मतदाताओं के बीच जरा भी पैठ नहीं बना सकी और उसे व भाजपा को मिले मतों का फासला बढ़ता ही चला गया। यह कांग्रेस के बेहद कमजोर होने का संकेत है।

- लव कुमार सिंह

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