अखबार का अनोखा अभियान
A composition on International Press Freedom Day (3 May)
एक अखबार के दफ्तर में बेहद महत्वपूर्ण बैठक चल रही थी। अखबार के मुख्यालय से आए क्षेत्रीय प्रभारी संपादक बैठक ले रहे थे। स्थानीय संपादक और उनके सभी सहयोगी बैठक में मौजूद थे। अखबार के प्रसार विभाग के आला अधिकारी भी थे। चर्चा का विषय यह था कि शहर में अखबार की कोई हलचल नहीं दिखाई दे रही है। कुछ ऐसा हल्ला मचाया जाए कि अखबार चर्चा में आ जाए।
किसी ने सुझाव दिया कि लोगों की समस्याएं एक अभियान के रूप में उठाई जाएं। कोई अपराध के खिलाफ जागरुकता अभियान की बात कर रहा था तो कोई मिलावट के खिलाफ बोल रहा था। किसी ने अतिक्रमण के खिलाफ अभियान की बात कही, मगर ये सभी सुझाव एक ही बार में रद्द हो गए। कहा गया कि लोगों की आम समस्याएं तो अखबार उठाते ही रहते हैं। मिलावट और अतिक्रमण को हाथ लगाया तो व्यापारी नाराज हो सकते हैं। अपराध वाला विषय भी बड़ा ड्राई बताया गया। अंत में तय हुआ कि बिल्डरों के खिलाफ अभियान चलाया जाए। इन्होंने पूरे शहर में बड़ी अंधेरगर्दी मचा रखी है।
रिपोर्टिंग प्रभारी और मुख्य उप संपादक वेद प्रकाश को यह सोचकर गर्व सा महसूस हुआ कि वह कितने जुझारू पत्रकारों के बीच बैठा है। बिल्डरों से वाकई शहर के लोग बहुत परेशान थे। विषय भी नया था। वेद प्रकाश यह सोच ही रहा था कि तभी अचानक उसे झटका सा लगा। बैठक में एक सूची पढ़कर सुनाई जाने लगी। संपादक और प्रसार अधिकारी ने कहा कि अभियान तो चलेगा मगर इस सूची में शामिल बिल्डरों को हाथ नहीं लगाया जाएगा।
करीब आठ-दस नाम गिना दिए गए। ये सभी बड़े और शहर के प्रमुख बिल्डर थे। वेद प्रकाश ने इनके बड़े-बड़े विज्ञापन अपने अखबार में खूब देखे थे। इसके अलावा यह भी बताया गया कि दोनों सरकारी आवास एजेंसियां यानी विकास प्राधिकरण और आवास विकास परिषद को भी नहीं छेड़ा जाएगा।
“सर सबसे ज्यादा तो लोग इन्हीं दोनों से पीड़ित हैं। ये ही अभियान से निकल जाएंगे तो हम किसके खिलाफ लिखेंगे?” वेद प्रकाश ने सवाल उठाया।
“नहीं, ऐसा नहीं है। लिखने को काफी कुछ होगा,“ संपादक ने एक और सूची निकाली, “आप इनके खिलाफ लिखें। ये भी तो बिल्डर ही हैं।”
“...लेकिन सर, लोगों को जवाब देना मुश्किल हो जाएगा। खबरों के लिए पीड़ित भी बहुत ज्यादा नहीं मिल पाएंगे।”
“क्या बच्चों वाली बात कर रहे हो वेद प्रकाश? एक बात ठीक से समझ लो कि ये अभियान लोगों के लिए नहीं है। हमने कोई चैरिटेबल ट्रस्ट थोड़े ही खोल रखा है। ये सभी बिल्डर, जिनके खिलाफ हमें लिखना है, विज्ञापन के लिए बिल्कुल भी हाथ नहीं रखने दे रहे हैं। हमें ऐसा अभियान चलाना है कि इस दौरान ये सभी बिल्डर हमारे दफ्तर में लाइन से खड़े नजर आएं।”
“देख लीजिए सर... इस तरह आधे-अधूरे ढंग से सब मैनेज करना मुश्किल होगा।”
“अगर ऐसा ही है तो फिर कल को तुम मुझसे अपनी तनख्वाह बढ़ाने के लिए मत कहना। ...ऐसे डरकर काम थोड़े ही चलेगा.....तुम हर बात में टांग अड़ा देते हो। ....अरे होगा क्यों नहीं यार, सब होगा। अभियान जोरदार ढंग से चलेगा,” संपादक ने फैसला सुना दिया।
अभियान शुरू हो गया। वेद प्रकाश ने बेमन से ही सही पर चुनिंदा बिल्डरों के खिलाफ खूब लिखा। अखबार के प्रसार या राजस्व में कितनी बढ़ोतरी हुई, यह तो मालूम नहीं हो सका, लेकिन कुछ दिन बाद दो बातें जरूर पता चलीं। एक तो ये कि अभी तक किराए के मकान में रह रहे संपादक और अभियान से जुड़े कुछ और बडे़ लोगों ने अपना खुद का मकान बनवा लिया और दूसरी ये कि न वेद प्रकाश ने अपनी तनख्वाह बढ़ाने के लिए कहा और न ही वह अपने आप बढ़ी। थोड़े दिन बाद वेद प्रकाश ने उस अखबार की नौकरी छोड़ दी और दूसरे अखबार में काम करने लगा।
- लव कुमार सिंह
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