Friday 10 September 2021

टेलीग्राफ के शीर्षक पर वाह, अमर उजाला के शीर्षक पर आह

टेलीग्राफ के शीर्षक पर वाह, अमर उजाला के शीर्षक पर आह


'Wow' on the title of Telegraph, 'Ah' on the title of Amar Ujala



अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार बनने पर अमर उजाला ने शीर्षक लगाया- ‘अफगानिस्तान में आतंकी सरकार’। इस शीर्षक पर पत्रकारिता के कुछ वरिष्ठजन भड़क गए। इनमें से एक हैं टेलीविजन पत्रकार रवीश कुमार और दूसरे प्रिंट मीडिया से सेवानिवृत्त हो चुके शम्भूनाथ शुक्ला जी।


रवीश कुमार ने लिखा-


क्या अख़बार उस दिन भी आतंकी सरकार लिखेंगे जब भारत सरकार का प्रतिनिधि तालिबान सरकार से मिलेगा? क्या तब अख़बार लिख पाएँगे कि मोदी सरकार ने आतंकवादियों से क्यों बात की ? भारत सरकार ने अभी तक आतंकी सरकार नहीं कहा है। किसान आंदोलन पर चुप प्रधानमंत्री से बोला नहीं जा रहा है। ख़र्चीले आयोजन से ग्लोबल लीडर नहीं बना जाता है। आज तक बोल नहीं पाए कि तालिबान आतंकी है या कुछ और। पोलिटिक्स देखिए, सरकार से सवाल नहीं पूछा जा रहा है, किसी और से पूछा जा रहा है।


शम्भूनाथ शुक्ला ने लिखा-


यह अख़बार की लीड है कोई वैचारिक पेज नहीं। क्या किसी चीफ़ सब, न्यूज़ एडिटर या रेज़िडेंट एडिटर को हक़ है कि वह किसी अन्य देश की सरकार को यूँ आतंकी कह दे? क्या भारत सरकार ने अफ़ग़ानिस्तान की तालिबान सरकार को आतंकी कहा है? इस तरह तो यह लीड न्यूज़ किसी दूसरे देश के अंदरूनी मामले में दख़ल है। अगर आतंकी सरकार है तो विश्व समुदाय उसे आतंकी कहे या भारत सरकार। किसी पत्रकार को सदैव निष्पक्ष एवं धीर-गंभीर रहना चाहिए। यूँ फ़ैसलाकुन हो जाना उचित नहीं। यह हिंदी बेल्ट का सबसे प्रतिष्ठित दैनिक है। अतः मुझे इस लापरवाही पर खीझ हुई। जो लोग पत्रकारिता को नहीं समझते वे कृपया टिप्पणी न करें। जिन्हें डेस्क की जवाबदेही का ज्ञान नहीं है वे अपने अंदर के इस्लामोफोबिया का फूहड़ प्रदर्शन न करें। समाचार आपकी खुन्नस से नहीं लिखा जाता उसे परोसने के पहले सरकार के पक्ष को भी रखें अन्यथा एडिट पेज में लिखें।

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ध्यान दीजिये पत्रकारिता के वरिष्ठजनों की यह वही बिरादरी है जो भारत में अंग्रेजी के अखबार ‘द टेलीग्राफ’ द्वारा पहले पेज पर सरकार के खिलाफ लगाए जाने वाले अनेक वैचारिक/कड़वे/तीखे शीर्षकों पर वाह-वाह कह उठती है। टेलीग्राफ के वैचारिक शीर्षकों को बाकायदा शेयर किया जाता है। लेकिन दूसरा कोई अखबार ऐसा करता है तो उनकी प्रतिक्रिया आह-आह जैसी हो जाती है, क्योंकि यह उनकी लाइन से मेल नहीं खाता। पत्रकारिता में ऐसा दोहरा मापदंड क्यों?



टेलीग्राफ के अनेक हैडलाइन तो पूरी तरह वैचारिक होते हैं, बल्कि आपत्तिजनक (एक का चित्र यहां पर दिया गया है) भी होते हैं, जबकि अमर उजाला का यह हैडिंग तो तथ्यपूर्ण भी है। भला बताइये जिन आतंकवादियों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारी इनाम राशि हो और वे किसी देश की लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार को हटाकर सत्ता पर काबिज हो जाएं तो क्या उसे आतंकी सरकार नहीं कहा जा सकता? बिल्कुल कहा जा सकता है।


रवीश कुमार कह रहे हैं कि भारत सरकार तो आतंकी नहीं कह रही। लेकिन रवीश कुमार कब सरकार के कहने में रहे हैं? उन्होंने विभिन्न मुद्दों पर कब इस बात का इंतजार किया है कि सरकार कुछ कहे, तभी वह कहेंगे और वही लाइन लेंगे, जिस लाइन पर सरकार चल रही है?


एक सामान्य व्यक्ति भी जानता है कि विदेश नीति में अनेक किंतु-परंतु होते हैं। भारी कूटनीति उसमें शामिल रहती है। अफगानिस्तान में फंसे भारतीयों की चिंता अलग है। भारत द्वारा किये गए निवेश का मामला भी है। इसलिये सरकार कब और क्या बोलेगी, क्या मीडिया को इसका इंतजार करना चाहिये? जनता और मीडिया स्वतंत्र हैं, इसलिये मीडिया तो अपनी बात रखेगा ही और अपने तरीके से रखेगा।


मुझे आश्चर्य हो रहा है कि पत्रकारिता के कई वरिष्ठजन तालिबानियों को आतंकी कहने से न केवल बच रहे हैं बल्कि जो तालिबानियों को आतंकी कह रहे हैं, उन्हें गरिया भी रहे हैं। यह तब है जब सरकार बना लेने के बाद अफगानिस्तान में पत्रकारों, महिलाओं और विरोधियों के खिलाफ तालिबान की हरकतें जगजाहिर हैं। क्या तालिबानियों की करतूतों को देखने, पढ़ने के लिये हमारी दोनों आंखें पर्याप्त नहीं हैं? क्या इसके लिये हमें अतिरिक्त आंखें और कान चाहिये?


- लव कुमार सिंह


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2 comments:

  1. शानदार लिखा सर

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