Tuesday 7 September 2021

समाज : बहुत बदला है पुरुष, मगर अभी बहुत बदलना है

समाज : बहुत बदला है पुरुष, मगर अभी बहुत बदलना है

Society: Men have changed a lot, but a lot has to change




मेरी किशोरावस्था को गुजरे कोई 35-40 साल हुए हैं। खूब अच्छी तरह याद है कि उस वक्त देश के मध्यम वर्ग में पत्नी की मदद करने वाले पुरुष को न सिर्फ साथी पुरुष बल्कि महिलाएं भी 'जोरू का गुलाम' कहती थीं। आज यह शब्द न तो आपसी बातचीत में सुनाई देता है और न ही समाचार पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलता है। आज के दौर में वही पुरुष अच्छा माना जाता है, जो पत्नी का मददगार है। उस वक्त पुरुष चाहकर भी पत्नी की मदद करने में हिचकते थे कि कहीं उन पर जोरू का गुलाम होने का ठप्पा न लग जाए। आज स्थिति ये है कि समाज की नजरों में चढ़ने के लिए पुरुष अपनी पत्नी की आगे बढ़कर मदद करते हैं।

एक बात और ध्यान में आती है कि उस वक्त पत्नी के साथ ज्यादा समय बिताने वाले पुरुष के लिए उसकी मां अपनी सहेलियों से कहती थी, “अरी क्या बताऊं बहन, रमेश तो शादी के बाद बहुत ही बदल गया है। हर समय बहू के पास ही घुसा रहता है।” आज के वक्त में हालात ये हैं कि पत्नी के साथ रमेश दूसरे शहर में मां-बाप से अलग रहता है। रमेश की मां के लिए आज इस तरह के संवाद बोलने का मौका ही नहीं है।

एक बात और बताना चाहूंगा जो मुझे बहुत अच्छी तरह याद है। पड़ोस में एक महिला की मौत हो गई थी। गमगीन माहौल में जब महिला को बेहद प्यार करने वाला पति रोया तो रिश्तेदार महिलाओं ने उससे कहा था, ”अरे बेटा प्रकाश, क्यों औरतों की तरह रोता है। एक चली गई तो क्या, दूसरी मिल जाएगी।“ इस एक वाक्य से पता चलता है कि उस और उससे पहले के समय में समाज में औरत की क्या स्थिति थी। इसके बनिस्पत आज देखें तो अब पत्नी की मौत एक पुरुष के लिए सचमुच दुखद घटना है।

मैं यह भी बताना चाहूंगा कि उस दौर में अगर कोई पति अपनी पत्नी के लिए “आप“ का संबोधन इस्तेमाल करता था तो यार-दोस्तों, बड़े-बूढ़ों, नाते-रिश्तेदारों में हंसी का पात्र बनता था। आज पत्नी के लिए “आप“ एक सहज संबोधन है।

ये छोटे-छोटे मगर सामाजिक दृष्टि से महत्वपूण बदलावों को देखकर लगता है कि आज का पुरुष काफी बदल गया है। भले ही परिस्थितियों ने उसे बदला हो पर वह बदला तो है ही। इसी के साथ ये भी सच है कि पुरुष को अभी बहुत बदलना है। अभी एक बड़े बाग रूपी भारत में पुरुष का बदलना कुछ पेड़ों पर चंद फूल दिखाई देने के समान ही है। ये फूल भी हालात रूपी स्प्रे का ही नतीजा नजर आते हैं।

पुरुषों के बहुत बड़ी संख्या में बदल जाने का भ्रम हमें दिल्ली में 16 दिसंबर 2012 की गैंगरेप की घटना के बाद भी हुआ। जिस तरह से देशभर में लड़कों और पुरुषों ने भी 'वी वांट जस्टिस' के नारे लगाए और पुुलिस की लाठियां खाईं, उससे लगा कि शायद अब अधिकतर पुरुषों की सोच महिलाओं के प्रति बदल रही है। अब शायद समाज में बहुत जल्दी ही बहुत बड़ा बदलाव दिखाई देगा, लेकिन यह सोचना भारी भूल साबित हुई। देश में बहुत शर्मनाक ढंग से छेड़खानी और बलात्कार बदस्तूर जारी हैं। इसके अलावा जिस तरह से इस घटना के बाद महिलाओं को लेकर कई जनप्रतिनिधियों की बेतुकी राय सामने आईं, उससे भी यह सिद्ध हो गया कि अधिकांश पुरुषों की मानसिकता जरा भी नहीं बदली है और दिल्ली अभी बहुत दूर है।

दरअसल हम ये भूल जाते हैं कि भारतीय समाज में इस वक्त संक्रमण काल चल रहा है। इस दौर में औरत ने घर के बाहर कदम रखे हैं और उधर पुरुष की स्थिति ये है कि सारे पुरुष अभी आदमी नहीं बन पाए हैं। इसके अच्छे-बुरे कई तरह के परिणाम सामने आ रहे हैं। औरत का बाहर निकलना एक बड़ा सामाजिक बदलाव है मगर अनेक लंपट पुरुष, औरत के घर से बाहर निकलने को अपने लिए एक अवसर की तरह भी देख रहे हैं। बदहाल शासन व्यवस्था ने उनका काम और आसान कर दिया है।

किसी ने कह दिया कि मुंबई महिलाओं के लिए सुरक्षित है तो इसका मतलब ये नहीं है कि वहां के सभी पुरुष सभ्य हो गए। इसका मतलब ये नहीं कि आप रात में किसी भी सुनसान जगह पर सैर करने निकल जाएं। अक्सर कहीं जाने से रोकने को महिला विरोध के रूप में देखा जाता है। इस बात को महिला विरोध के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि एक सुनसान जगह महिला ही नहीं किसी पुरुष के लिए भी खतरनाक हो सकती है।

कुल मिलाकर चूंकि औरत ने बड़ी संख्या में पहली बार बाहर कदम रखा है तो उसे सचेत रहने की ज्यादा जरूरत है। इसे बिल्कुल भी अन्यथा नहीं लिया जाना चाहिए। उसे समझना चाहिए कि पुरुष बहुत बदला है पर उसका बहुत बदलना अभी बाकी है। तब तक थोड़ा धीरज रखें। सावधान रहें।

- लव कुमार सिंह

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