Thursday 25 June 2020

अपराधी दिमाग वाले और नाकारा पुलिसकर्मियों से पुलिस विभाग को कैसे छुटकारा मिलेगा?

How will the police dept. get rid of the criminal minded and incompetent policemen?


 

  • अगर आतंकवादी कुछ दिनों के प्रशिक्षण में युवाओं की मानसिकता बदल सकते हैं तो क्या पुलिस का प्रशिक्षण अपराधी पुलिसवालों की मानसिकता नहीं बदल सकता?
  • If terrorists can change the mentality of the youth in a few days training, then can the police training not change the mindset of the criminal policemen?



मायावती गईं, अखिलेश यादव आए। अखिलेश गए, योगी आदित्यनाथ आए। योगी भी जाएंगे तो कोई और आएगा। मगर ये 'झगड़ू' सिपाही और 'जबरू' दारोगा न कहीं गए थे और न कहीं जाएंगे। सरकारें बदल जाती हैं मगर ये कभी नहीं बदलते और न ही बदलती है इनकी आपराधिक मानसिकता। कोई सरकार इनकी मानसिकता बदलने का प्रयास भी नहीं करती है।

 

क्या है इनकी मानसिकता? झगड़ू और जबरू की नजर में वे पुलिस की नौकरी में कोई समाजसेवा करने नहीं आए हैं। उनके लिए किसी की मदद करना तो संक्रामक रोग की तरह है, जो उन्हें अपनी गिरफ्त में ले सकता है। किसी की मदद करने पर या किसी से सहजता से बोलने पर इन्हें अपनी ही नजर में गिरने की आशंका होती है।

 

झगड़ू और जबरू के लिए लिए पुलिस की नौकरी के दो ही मतलब हैं-

 

एक- इस नौकरी से दोस्तों, नाते-रिश्तेदारों में उनका रौब गालिब हो और

दो- कहीं से भी और कैसे भी यह नौकरी उनकी अवैध वसूली का जरिया बन जाए या जिस भी चीज की उन्हें जरूरत हो, वह उन्हें मुफ्त में मिल जाए।

 

ये दो उद्देश्य पूरे न हों तो झगड़ू और जबरू बावले हो जाते हैं। इन उद्देश्यों की पूर्ति में जो भी बाधा बनता है, वे उस पर कहर बनकर टूट पड़ते हैं। इसके बाद हमें सुनने को मिलते हैं पुलिस हिरासत में मौत के समाचार, सड़क पर पुलिस द्वारा लूट के समाचार, रात के अंधेरे में डकैती के समाचार। पत्रकारों की पिटाई के समाचार। निरीह लोगों पर लाठी बरसाने के समाचार। यूं ही किसी को भी गोली मार देने के समाचार।

 

आम जनता का सबसे ज्यादा सामना इन्हीं झगड़ू और जबरू से होता है। ये आम जनता की बाद में सुनते हैं, अपना गाली-गलौच के अभ्यास वाला मुंह और मारपीट के अभ्यास वाले हाथ पहले चलाते हैं। लेकिन अक्सर देखा जाता है कि जब किसी बदमाश से इनका सामना होता है तो इनका मुंह बंद हो जाता है और हाथ चलना भूल जाते हैं।

 

ये झगड़ू और जबरू इतने काइयां हैं कि किसी के यहां हत्या हो जाए तो भी इनका दिल पसीजता नहीं है। ये हत्या, डकैती, मृत्यु वाले घर में भी वसूली करने की संभावनाएं अंतिम क्षण तक टटोलते हैं। इनकी पुलिसिया किताब में पीड़ित और अत्याचारी, असहाय और बाहुबली में कोई अंतर नहीं है।

 

वर्षों से हम पुलिस में सुधार की बातें सुनते आ रहे हैं, लेकिन सुधार कोसों दूर खड़ा दिखाई देता है। इसके उलट कोई सरकार आती है और भर्ती में होने वाला इंटरव्यू बंद कर देती है। कोई सरकार लिखित परीक्षा ही खत्म कर देती है। इससे झगड़ू और जबरू का पुलिस में आना और भी आसान हो जाता है।

 

सरकारी किसी की भी हो और डीजीपी कोई भी हो, जब तक पुलिस विभाग में भारी संख्या में मौजूद झगड़ू और जबरू की मानसिकता नहीं बदली जाएगी, तब तक जनता परेशान होती रहेगी और पुलिस महकमे व सरकारों की फजीहत होती रहेगी।

 

झगड़ू और जबरू की मानसिकता कैसे बदली जाएगी?

 

इसके लिए सबसे पहले भर्ती प्रक्रिया में बदलाव करना होगा। यह प्रक्रिया ऐसी बनानी होगी ताकि पुलिस की नौकरी में मजबूत इच्छाशक्ति और सेवाभाव रखने वाले युवा ही ज्यादा से ज्यादा संख्या में जा पाएं। पुलिस की भर्ती प्रक्रिया में मनोविशेषज्ञों, समाजशास्त्रियों जैसे लोगों को भी शामिल करना चाहिए ताकि पता लगाया जा सके कि भर्ती होने वाला युवा पुलिस की नौकरी के लिए कितना उपयुक्त है। पुलिस की नौकरी सबके लिए नहीं होनी चाहिए, जबकि आज की हकीकत यह है कि जो युवा ठीक से पढ़-लिख नहीं पाता या कुछ और नहीं कर पाता वह पुलिस की नौकरी करने पहुंच जाता है।

 

पुलिस में भर्ती होने के बाद भी प्रशिक्षण कार्यक्रम सघन और लंबी अवधि का किया जाना चाहिए। पुलिस प्रशिक्षण चलाने वालों को स्वयं से सवाल पूछना चाहिए कि आतंकवादी संगठन कुछ ही दिनों के प्रशिक्षण में किसी युवा का ब्रेनवाश करके उसकी मानसिकता को अपने उद्देश्य के अनुकूल बना देते हैं तो क्या पुलिस प्रशिक्षण के दौरान युुवाओं को समाजसेवा के लिए ब्रेनवाश नहीं किया जा सकता है? क्या भर्ती और पुलिस प्रशिक्षण के दौरान यह पता नहीं लगाया जा सकता कि फलां आदमी के रूप में पुलिस में कोई सिपाही या दारोगा भर्ती नहीं हुआ है बल्कि कोई बदमाश भर्ती हो गया है?

 

मैं अक्सर अपने घर के नजदीक स्थित विश्वविद्यालय के प्रांगण में टहलने चला जाता हूं। वहां सिपाही भर्ती के लिए अनेक युवा अभ्यास करते दिखाई देते हैं। उनकी बातचीत के लहजे, बातचीत के विषय और उनके अंदाज को देखकर-सुनकर उनमें से अनेक युवाओं में मुझे झगड़ू और जबरू नजर आते हैं। अब अगर पुलिस प्रशिक्षण के दौरान भी उनके नजरिये में जरा भी बदलाव नहीं आ पाता है तो समझ लेना चाहिए कि हमें इन झगडू और जबरू से मुक्ति के लिए अभी लंबा इंतजार करना होगा।


अफसरों की अकर्मण्यता पड़ रही भारी


इसी के साथ उच्च अधिकारियों को भी ज्यादा निगरानी और सतर्कता बरतने की जरूरत होगी। लेकिन वास्तविकता यह है कि निगरानी और सतर्कता के बजाय अनेक बार ये अधिकारी ही झगड़ू और जबरू को प्रोत्साहित करने का काम करते हैं, क्योंकि झगड़ू और जबरू इन अधिकारियों की जेब जो भरते रहते हैं। कमाल की बात तो यह है कि उच्च अधिकारी अच्छे रुतबे, अच्छे वेतन और सम्मान को छोड़कर और ज्यादा धन की चाह में अपराधियों से मेलजोल कर लेते हैं। अब यूपी एसटीएफ के पूर्व डीआईजी अनंत देव तिवारी को ही ले लीजिए। एसटीएफ में रहते हुए उन्होंने काफी नाम कमाया था, लेकिन कानपुर के बिकरू गांव में डीएसपी समेत आठ पुलिसकर्मियों की हत्या के मामले में उनकी भूमिका संदेहास्पद पाई गई। डीएसपी के पत्र लिखने के बावजूद उन्होंने कानपुर नगर का एसएसपी रहते हुए एसओ चौबेपुर के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। गैंगस्टर विकास दुबे भी खुला घूमता रहा। विकास दुबे के करीबी के साथ अनंत देव के कई फोटो भी वायरल हुए। शासन ने अनंत देव को एसटीएफ के डीआईजी पद से हटाकर उनका तबादला कर दिया है। एक ही झटके में उनकी प्रतिष्ठा को भारी नुकसान पहुंचा है। कोर्ट ने भी उनके खिलाफ टिप्पणी की है।


क्या ऊंची तनख्वाह पाने वाले पुलिस के अधिकारियों को मनरेगा का हिसाब रखना होता है या उन्हें खेतों में जाकर फसल की सिंचाई करनी होती हैं? जब ऐसा नहीं है तो फिर क्या ये अधिकारी नियमित रूप से अपने क्षेत्राधिकार में आने वाले थानों का निरीक्षण नहीं कर सकते? क्या ये अधिकारी थाने, चौकी में आ रही शिकायतों की नियमित समीक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकते? उदाहरण के रूप में अगर अधिकारियों ने अपने काम को जिम्मेदारी से किया होता तो आज हमारे बीच गाजियाबाद के पत्रकार विक्रम जोशी जिंदा होते, जिन्हें अपनी भांजी की छेड़खानी की शिकायत पुलिस से करने पर बदमाशों ने सरेराह मार डाला। यदि अधिकारी अपनी निगरानी की जिम्मेदारी ठीक से निभाते तो विक्रम जोशी की शिकायत पर कार्रवाई न करने की हिम्मत निचले स्तर के पुलिसकर्मी नहीं कर पाते। अफसोस कि ये वे पुलिस अधिकारी हैं जो आईपीएस बनने के इंटरव्यू में देश और समाज की सेवा की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन जब ड्यूटी पर आते हैं तो अपनी जेब भरना ही इनका एकमात्र धर्म बन जाता है।


पुलिस विभाग में हालात इतने खराब हैं कि बस और कुछ कहते नहीं बनता-


कई दारोगा/एसपी को भारी-भरकम रुतबा और सम्मान भी नहीं जंचता

हर महीने मिलने वाले आकर्षक वेतन और 'उपहारों' से भी पेट नहीं भरता

डीएसपी, एसएसपी, डीआईजी, आईजी के रूप में तरक्की के मौके भी खूब हैं

मगर फिर भी इन्हें ये तरक्की नहीं, कोई और 'विकास' ही है जंचता

सवाल है फिर पुलिस में क्यों आया भाया? मजे से कहीं भी दलाली से जेब भरता।


- लव कुमार सिंह



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