Wednesday 5 February 2020

ऑटो इंडस्ट्री चिंतित है कि कारें कम बिकीं, मगर हमारा मानना है कि कारें कम और साइकिल ज्यादा बिकनी चाहिए

The auto industry is worried that cars sell less, but we believe cars should sell less and bicycles more





पिछले कई वर्षों के दौरान भारत में कारों की कम बिक्री पर काफी चिंता जताई जाती रही है। 2019 में तो कारों की कम बिक्री के कारण काफी अफरातफरी महसूस की गई। अर्थव्यवस्था में मंदी का शोर भी कारों की कम बिक्री के बाद ही उठा। इससे पहले 2017-18 में प्रस्तुत किए गए आंकड़ों में तो यह भी बताया गया कि  कारों और अन्य वाहनों की बिक्री इतनी कम हुई कि पिछले 16 साल के रिकार्ड टूट गए।

हो सकता है कि यह खबर कुछ लोगों को चिंतित करती हो, हो सकता है कि इससे कुछ लोगों के रोजगार पर भी असर पड़ता हो, लेकिन जो लोग देश की बदतर ट्रैफिक व्यवस्था, जाम और सड़कों पर पैदा होने वाले भयंकर प्रदूषण से परेशान और चिंतित हैं, उनके लिए यह खबर अच्छी है। कारें कम बिकने से जिनका रोजगार छिनता है, वे दूसरा रोजगार ढूंढ सकते हैं, लेकिन कारों व अन्य मोटर वाहनों से होने वाले भयंकर प्रदूषण से पर्यावरण को जो नुकसान होता है, उसकी भरपाई बहुत मुश्किल होती है।  भारत में  ट्रैफिक, प्रदूषण और इससे उत्पन्न होने वाली समस्याओं को देखते हुए यह अच्छा ही है कि कारें कम ही बिकें।


कारें क्यों कम बिकनी चाहिए?


कोई नहीं जानता कि सड़कों पर रोजाना लगते जाम के बीच अगली सदी यानी 2100 और उसके बाद आदमी का परिवहन का व्यक्तिगत जरिया क्या होगा। इतना तो तय माना जा रहा है कि जिस रफ्तार से ईंधन की खपत और चार पहिया व अन्य वाहन बढ़ रहे हैं उस हिसाब से उस सदी में कोई वैकल्पिक उपाय ही आदमी को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचा सकेगा, क्योंकि तब तक सड़कों पर वाहनों के आगे बढ़ने के लिए बहुत ही कम जगह बची रह पाएगी।

जो हालात बन रहे हैं, उनके हिसाब से चार स्थितियों की कल्पना की जा सकती है। 

एक- आदमी उड़ने वाले चार या दोपहिया वाहन बनाने में सक्षम हो जाए और कुछ समय के लिए समस्याओं का अंत हो जाए।

दो- हवा में तो सड़कें अभी से उठ गई हैं, हो सकता है तब तक सड़कें, भवनों की तरहें मल्टीस्टोरी भी हो जाएं।

तीन- व्यक्तिगत चार पहिया और दो पहिया मोटर वाहनों पर प्रतिबंध लग जाए और उनकी जगह साइकिल और सार्वजनिक परिवहन वाले वाहन ही चलें।

चार- सभी वाहन कायम रहें मगर व्यक्ति को उन्हें सड़क पर लाने के लिए भारीभरकम रकम और प्रतिबंधों का सामना करना पड़े।

आइए अब चारों स्थितियों का जायजा ले लेते हैं। यहां हम चौथी से पहली कल्पना की ओर चलेंगे।

चौथी कल्पना- दशकों पहले आ गई थी रोड स्पेस राशनिंग


भविष्य में कुछ भी हो सकता है। जैसे चौथी कल्पना के पूरी तरह सच में बदलने के संकेत तो अभी से मिलने लगे हैं। विदेशों में 80 के दशक से ही रोड स्पेस राशनिंग की व्यवस्था है, जबकि भारत में यह पिछले कुछ वर्षों से दिल्ली में 'ऑड-इवन' के रूप में दिखाई दी है। हालांकि दिल्ली में यह व्यवस्था सही तरीके से लागू नहीं हो पाई।

इस  व्यवस्था में एक निश्चित इलाके में निश्चित समय तक वाहनों का प्रवेश रोका जाता है। वाहनों के नंबर के अंतिम दो अंकों के आधार पर यह व्यवस्था की जाती है। यानी अगर अंतिम दो अंक सम (24, 26, 28 आदि) हैं तो या तो फलां दिन वह वाहन सड़क पर आ सकता है या नहीं आ सकता।

लैटिन अमेरिकी देशों में तो यह व्यवस्था दो दशक से चलन में है। बीजिंग ओलंपिक 2008 और लंदन ओलंपिक 2012 में भी यह प्रणाली अपनाई गई। इससे 20 प्रतिशत तक सड़कों का भार कम हुआ और प्रदूषण के स्तर में भारी गिरावट आई। इस सफलता से उत्साहित होकर बीजिंग और लंदन के कुछ चुनिंदा इलाकों में यह व्यवस्था स्थायी कर दी गई है। रोड स्पेस राशनिंग की व्यवस्था बता रही है कि यदि ट्रैफिक काबू में नहीं आया तो आगे-आगे रोड स्पेस राशनिंग के नियम और कड़े हो सकते हैं। हो सकता है कि भविष्य में अलग-अलग रंग की कारें केवल हफ्ते में एक ही दिन सड़क पर निकल पाए। जैसे सोमवार को केवल सफेद कारें ही चलें और मंगलवार को लाल कारें ही सड़क पर आने दी जाएं।

आज जब भी हम घर से बाहर सड़क पर निकलते हैं तो तीन सवाल मन में तुरंत उठ खड़े होते हैं।
एक- क्या हम सही सलामत अपने गंतव्य तक पहुंचकर घर वापस लौटेंगे?
दो- पता नहीं घर लौटने में कितनी देर लगेगी? ऐसे में कौन से रास्ते से गाड़ी निकाली जाए कि जाम से बच जाएं?
तीन- सड़क पर भयंकर वायु प्रदूषण में अपने कपड़ों, त्वचा और फेफड़ों को कैसे बचाया जाए?

जाम, हादसे और बेतहाशा वायु प्रदूषण आज की भारतीय यातायात व्यवस्था की एक नंगी सच्चाई है। नया, पुराना कोई शहर जाम से अछूता नहीं है। सड़क हादसों में किसी युद्ध से भी ज्यादा लोग मारे जा रहे हैं और जहरीली हुई हवा नई-नई बीमारियां हमें सौंप रही है। विदेशों में भी ये समस्याएं हैं, लेकिन अनेक देशों ने नियंत्रणकारी उपाय करके इन पर काफी हद तक काबू पा लिया है। भारत में इस दिशा में बहुत कम काम हो रहा है। इसका नतीजा ये है कि न सिर्फ महानगरों बल्कि देश के छोटे शहरों में भी लोगों को जिंदगी का कीमती समय सड़क पर बिताने को मजबूर होना पड़ रहा है।

भारत में तो अरबन ट्रांसपोर्ट प्लानिंग के नियमों तक का पालन नहीं किया गया। इस प्लानिंग के नियम कहते हैं कि किसी भी इलाके को विकसित करने के लिए वहां की 20 फीसदी जगह सड़कों के लिए छोड़नी चाहिए, मगर बड़े-बड़े शहरों में इस बुनियादी नियम का पालन नहीं हुआ है। राजधानी दिल्ली में सड़कों के लिए 15 फीसदी ही स्थान मौजूद है। कोलकाता में तो यह आश्चर्यजनक रूप से पांच फीसदी ही है। अगर कोलकाता में दिल्ली जितने वाहन हो जाएं तो सारा कोलकाता थम जाएगा।

तीसरी कल्पना- साइकिल पर है पूरी दुनिया की नजर

तीसरी कल्पना यानी साइकिल की वापसी और सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावे की तरफ भी दुनिया के कदम बढ़ चुके हैं। ग्लोबल वार्मिंग, महंगे होते ईंधन और बढ़ते प्रदूषण के बीच अनेक देशों में कई विभाग यह तय कर चुके हैं कि उन विभागों के सभी अधिकारी और कर्मचारी हफ्ते में एक या दो दिन साइकिल से दफ्तर जाएंगे। साइकिल दरअसल कई तरह से फायदेमंद है और कुछ विशेषज्ञ तो यह भी कहने लगे हैं कि ये दुनिया साइकिल का इस्तेमाल करके ही बच पाएगी। साइकिल इस दुनिया का जाम से राहत दिलाएगी, साइकिल ईंधन की समस्या खत्म कर देगी, साइकिल ही प्रदूषण मुक्त दुनिया ला सकेगी और इन सबके साथ साइकिल आदमी की सेहत भी बनाएगी। यानी साइकिल चार-चार मोर्चों पर फायदा पहुंचाती है।

दुनिया के अनेक देशों में कारों की बिक्री को हतोत्साहित करके साइकिल को प्रोत्साहन देने का काम भी शुरू हो चुका है। जापान में तेल पर भारी टैक्स लगाया गया है तो डेनमार्क में कार रजिस्ट्रेशन फीस 180 फीसदी तक कर दी गई है। कई देशों की राजधानियों में तो एक-दो सालों में पीक आवर्स में चुनिंदा क्षेत्रों में हर तरह की कार पर प्रतिबंध लगाने की योजना भी बनाई जा रही है।

दूसरी कल्पना- फैल गया है फ्लाईओवर का जाल

दूसरी कल्पना क्या रूप लेगी, यह कहा नहीं जा सकता, लेकिन बड़े शहरों में फ्लाइओवरों का जाल बिछ चुका है। मुंबई और अन्य बड़े शहरों में इनका लगातार बनना जारी है। जब इनसे भी ट्रैफिक जाम की समस्या हल नहीं होगी तो हो सकता है कि सड़कें भी मल्टीस्टोरी हो जाएं। फिलहाल मुंबई में पटरी के नीचे लटकती ट्रेन चलाने की योजना है। हो सकता है इसी तरह लटकती बसें और लटकती कारें भी चलने लगें।

पहली कल्पना- उड़ती कार क्या सब आसान कर देगी?

हवा में कार को उड़ाना भी आदमी का सपना है। हो सकता है कि अगली सदी तक कार हवा में उड़ने लगे और समस्या का हल निकल आए, लेकिन जानकार कहते हैं कि इतना सब करने पर भी यदि भारी तादाद में नए वाहनों का सड़क पर उतरना कम नहीं हुआ तो सारे उपाय एक दिन व्यर्थ हो जाने वाले हैं। ऐसे में दुनिया खत्म भले न हो, पर वह थम जरूर सकती है।

तो भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है? चारों कल्पनाओं में से कुछ भी मूर्त रूप ले सकती हैं, लेकिन जिस प्रकार के हालत बन रहे हैं, उससे ऐसा लगता है कि अगर आदमी सफल हुआ तो अगली सदी उड़ती कार की हो सकती है, लेकिन यदि ऐसा नहीं हुआ तो सार्वजनिक परिवहन और साइकिल ही सड़क पर नजर आएंगी, क्योंकि तब तक स्थितियां संभवतः उस कार को झेलने लायक नहीं रह जाएंगी, जिसमें सिर्फ एक आदमी बैठता है और वह पांच आदमियों लायक वाहन जितनी जगह घेरती है।
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सड़कों पर हर एक घंटे में 18 मौत

वाहनों की बढ़ती भीड़ के कारण देश में हर एक घंटे में 18 व्यक्तियों की मौत हो रही है और 67 लोग गंभीर रूप से घायल हो रहे हैं। यह मृत्यु दर विश्व में सर्वाधिक है। सड़क हादसों में मरने वालों में ज्यादातर लोग 15 से 40 की उम्र के थे। ये सभी ज्यादातर तेज रफ्तार बाइक या कार चलाते मारे गए।

फिर भी कार बिक्री की बहुत गुंजाइश है

सड़कों पर भले ही जगह न बची हो, मगर सोसायटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चर्स (सिआम) के अनुसार भारत में कार बाजार अभी संतृप्त नहीं हुआ है। शहरी भारत में 11 घरों में से केवल एक के पास ही कार है, जबकि देहात क्षेत्र में यह अनुपात 50 घरों में एक कार का ही है। यानी कार निर्माताओं के पास कार बिक्री के बेशुमार अवसर हैं, पर देश के पास ज्यादा अवसर नहीं हैं। कार कंपनियां 11-1 और 50-1 का अनुपात जैसे-जैसे कम करती जाएंगी, वैसे-वैसे हमारा-आपका और सड़कों का दम घुटता जाएगा।

अभी नौ करोड़, 2030 तक 45 करोड़

परिवहन क्षेत्र से जुड़े लोगों की चिंता ये है कि 2030 तक भारत में 40 से 45 करोड़ तक वाहन हो जाएंगे, जो अभी नौ-दस करोड़ के आसपास हैं। अपने देश में जैसी सड़कें और यातायात व्यवस्था है, उसमें कोई नहीं जानता कि इतने वाहन सड़कों पर कैसे समाएंगे। जाम के आज के हालात को देखकर साफ है कि आगे क्रांतिकारी बदलाव नहीं किए तो सड़कों पर यातायात को संभालना बहुत मुश्किल हो जाएगा।


- लव कुमार सिंह

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