Will Prashant Kishore be in front of Nitish Kumar by forming his party in Bihar elections?
क्या किंग मेकर किंग भी बनना चाहता है?
क्या कारण है कि नेता पीके को साथ भी लेते हैं मगर फिर किनारे भी कर देते हैं?
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प्रशांत किशोर कमाल
के व्यक्ति इस लिहाज से हैं कि देश के तमाम बड़े राजनीतिज्ञ चुनाव के दौरान उनकी
सेवाएं ले चुके हैं और प्रशांत किशोर की सफलता-विफलता के बावजूद कई अन्य नेता उनकी
सेवाएं लेने के इच्छुक हैं। भारतीय राजनीति में ऐसा कभी नहीं देखने को मिला कि कोई
व्यक्ति किसी पार्टी का पदाधिकारी हो और इसी के साथ वह दूसरे दलों को चुनावी सलाह
भी दे रहा हो। दल भी ऐसे जिनसे उस व्यक्ति की पार्टी की बनती नहीं है।
प्रशांत किशोर सबसे
पहले नरेंद्र मोदी के साथ 2012 में जुड़े और 2014 में उनके चुनावी रणनीतिकार
की कमान संभाली। मोदी देश के प्रधानमंत्री बन गए, लेकिन प्रशांत किशोर मोदी से
जुड़े नहीं रह सके। बिहार के चुनाव में वह नीतीश कुमार के साथ जुड़ गए। वहां भी
उनका चुनावी अभियान सफल रहा। फिर वे उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी के साथ जुड़े
लेकिन वहां वे बुरी तरह विफल साबित हुए। पंजाब के चुनाव में उन्होंने कैप्टन
अमरिंदर सिंह की मदद की। इसी दौरान महाराष्ट्र में उन्होंने शिवसेना के लिए काम
किया तो झारखंड में हेमंत सोरेन का साथ दिया। इससे पहले आंध्र प्रदेश में जगन
मोहन रेड्डी ने भी उनकी सेवाएं लीं। 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में वह अरविंद
केजरीवाल का साथ दे रहे हैं और इसी बीच जनतादल-यू से निष्कासित भी हो चुके हैं।
प्रशांत किशोर यहीं नहीं रुके हैं बल्कि आगे तमिलनाडु में द्रमुक व पश्चिम बंगाल
में ममता बनर्जी विधानसभा चुनाव में उनकी सेवाएं लेना चाहती हैं।
लेकिन साथ ही यह भी
लगता है कि प्रशांत किशोर में कुछ ऐसी कमजोरी या गड़बड़ी भी है कि वे किसी भी नेता
के साथ स्थायी रूप से नहीं जुड़ पाते हैं। क्या यह कमजोरी उनकी महत्वाकांक्षा है
या किसी पार्टी के साथ जुड़कर वहां जरूरत से ज्यादा हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति
है? प्रशांत किशोर पर नजर रखने वालों के अनुसार उनके साथ यह दोनों ही बातें जुड़ी
हैं।
राजनेता प्रशांत किशोर की सलाह से चुनावी वैतरणी तो पार करना चाहते हैं,
लेकिन इससे आगे की सलाह उन्हें पसंद नहीं है। जैसे कि प्रशांत किशोर चाहते हैं कि
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस केवल 200 सीटों पर चुनाव लड़े। ये 200 सीटें वे हैं
जहां कांग्रेस, भाजपा के सामने सीधे मुकाबले में रहती है। बाकी सीटों पर प्रशांत
किशोर भाजपा के खिलाफ क्षेत्रीय दलों को लड़ाने के हिमायती हैं। अब कांग्रेस आम
चुनावों में भाजपा को हराना तो चाहती है लेकिन पीके की 200 सीटों वाली सलाह उसे
पसंद नहीं आती। पीके की ऐसी ही सलाहें अन्य दलों के नेताओं को भी पसंद नहीं आती
हैं। ये सलाहें चुनावों के परिणामों को बदलने के हिसाब से बेहद महत्वपूर्ण होती
हैं, लेकिन पार्टियों के अपने हितों के खिलाफ जाती हैं, इसलिए वे इन्हें नहीं
मानती और पीके की राह उनसे अलग हो जाती हैं।
प्रशांत किशोर महत्वाकांक्षी
भी हैं। बताया जाता है कि 2014 में नरेंद्र मोदी के जीतने पर वे उस सरकार में अपने
लिए कोई पद चाहते थे लेकिन यह संभव नहीं हो सका। जद-यू में वे शामिल हो ही गए थे।
फिर वहां से निष्कासित भी हो गए। बताया जा रहा है कि विभिन्न पार्टियों से निराश
होकर अब प्रशांत किशोर अपनी पार्टी बना सकते हैं। वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई की
मानें तो यदि दिल्ली में केजरीवाल को जीत मिलती है तो प्रशांत किशोर बिहार में अपनी
पार्टी बनाकर नीतीश कुमार को चुनौती दे सकते हैं। यह भी हो सकता है कि वह अपनी पार्टी बनाने के बजाय किसी अन्य पार्टी में शामिल होकर चुनाव लड़ें। अब यह भविष्य ही बताएगा कि
प्रशांत किशोर किंग मेकर ही बने रहते हैं या वह किंग भी बनने का प्रयास करेंगे।
यहां बताते चलें कि प्रशांत किशोर बिहार के रोहतास जिले के कोनार गांव के निवासी हैं। उनके पिता श्रीकांत पांडे एक डॉक्टर थे, जो बक्सर में स्थानांतरित हो गए। बक्सर में ही प्रशांत किशोर की माध्यमिक शिक्षा पूरी हुई। वे सार्वजनिक स्वास्थ्य में प्रशिक्षित हैं। उन्होंने राजनीति में प्रवेश करने से पहले आठ वर्ष तक संयुक्त राष्ट्र के लिए भी काम किया। 2013 में प्रशांत किशोर ने मई 2014 के आम चुनावों की तैयारी के लिए एक मीडिया और प्रचार कंपनी ‘सिटीजंस फॉर अकाउंटेबल गवर्नेंस’ का गठन किया।
- लव कुमार सिंह
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