Saturday 12 June 2021

मिसिंग और मीटिंग : पत्रकारों में तनाव के दो बड़े कारण

Missing and meeting: Two big reasons for tension among journalists


पाठक को परवाह ही नहीं है लेकिन संपादक मातहतों पर पिले पड़े हैं



अखबारों की दुनिया से बाहर आकर आज जब एक सामान्य पाठक के रूप में कोई अखबार पढ़ता हूं तो एक-दो बड़ी खबरों को छोड़कर, सामान्य खबरों के लिए एक भी दिन इस बात की तरफ ध्यान नहीं गया कि फलां अखबार में यह खबर नहीं थी या फलां अखबार में थी।

....और जब किसी दिन एक ही अखबार पढ़ पाता हूं (ज्यादातर पाठक एक ही अखबार पढ़ते हैं) तो बिल्कुल भी पता नहीं चलता कि इस अखबार ने क्या छोड़ दिया और अन्य अखबार ने क्या अतिरिक्त छाप दिया। यह भी तभी पता चलता है जब कोई अखबार किसी बड़ी घटना को मिस कर देता है और कोई मित्र या परिचित उस घटना या खबर का जिक्र कर देता है।

कुछ बड़ी घटनाओं या खबरों को छोड़ दिया जाए तो सामान्य खबरों के मामले में पाठक को इस बात की बिल्कुल परवाह और जानकारी नहीं रहती कि एक अखबार ने क्या कम छापा या दूसरे अखबार ने क्या ज्यादा छापा।

इसके ठीक उलट जब अखबार के दिनों को याद करता हूं या वर्तमान में अखबारों में काम कर रहे मित्रों के अनुभव सुनता हूं तो पाता हूं कि सामान्य सी चाकू-छुरी, आपसी मारपीट आदि की खबरों के अपने अखबार में न होने और सामने वाले अखबार में होने पर संपादक न केवल अपना बल्कि अपने मातहतों का भी तन और मन खराब किए रहते हैं।

किसी खबर की मिसिंग को लेकर अखबारों में इस कदर तूफान मचा रहता है कि पत्रकारों को किसी भी क्षण मानसिक शांति नहीं मिल पाती है। संपादकों का ध्यान इस बात की तरफ नहीं होता है कि शाम को जो खबरें हमारे पास थीं, उन्हें हमने कितनी गुणवत्ता के साथ छापा, कितनी अतिरिक्त जानकारी दी या कितना वैल्यू एडीशन किया। अपने अखबार को पठनीय बनाने के बजाय उनका ध्यान इस बात में ज्यादा रहता है कि छोटे से छोटा भी क्या छूट गया और क्यों छूट गया। कोई बड़ी हार्ड न्यूज छूट गई तो चिंता होनी भी चाहिए, लेकिन सामान्य सी खबरों के लिए मातहतों के साथ मारामारी करने से क्या फायदा? इससे अखबार के प्रसार पर कोई असर नहीं पड़ता, हां स्वयं संपादक और उनके मातहतों में तनाव का प्रसार जरूर बढ़ जाता है।

अब मीटिंग की बात करते हैं। रणनीति बनाने के लिए मीटिंग करना जरूरी होता है, लेकिन एक मित्र बता रहे थे कि उनके यहां दफ्तर में दिन भर मीटिंग ही होती रहती हैं। मीटिंग में उन लोगों को भी बुलाने पर मजबूर किया जाता है जो रात में अखबार निकालकर ढाई-तीन बजे घर पहुंचते हैं और चार बजे तक सो पाते हैं। यह बिल्कुल समझ से परे है। जो पत्रकार सुबह तीन-चार बजे घर जाकर सोया हो, वह यदि सुबह दस बजे मीटिंग में आएगा और शाम को चार-पांच बजे फिर दफ्तर में उपस्थित होगा, उससे आप किस प्रकार के गुणवत्तापूर्ण काम की उम्मीद कर सकते हैं।

इन मीटिंग्स से कुछ बेहतर निकल रहा हो तो समझ में भी आता है, लेकिन सिर्फ तनाव बढ़ाने के अतिरिक्त इन मीटिंग्स की कोई भूमिका नजर नहीं आती है। आदर्श स्थिति संपादक द्वारा केवल दो-तीन मीटिंग्स की बनती है। एक सुबह रिपोर्टरों के साथ और दूसरी शाम को फिर रिपोर्टरों के साथ। अगर रिपोर्टर, डेस्क वाले दफ्तर में ही बैठते हैं तो रिपोर्टरों की बैठक में डेस्क इंचार्ज भी शामिल किए जा सकते हैं, वर्ना डेस्क इंचार्जों की बैठक अलग से ली जा सकती है।

एक डेस्क पर कार्यरत मित्र बता रहे थे कि वे सुबह को तो मीटिंग में जाते हीं है, शाम को भी मीटिंग में जाते हैं और शाम की मीटिंग इतनी देर चलती है कि जब डेस्क पर वापस लौटते हैं तो खबरों का ढेर देखकर हालत पतली हो जाती है। उसके बाद तो बस एक-दो खबर पर ही ठीक से ध्यान दे पाते हैं, बाकी खबरों में रुटीन का औसत दर्जे का काम ही हो पाता है।

मेरी संपादकों से बस यही अपील है कि अपने मातहतों को कम से कम तनाव दो, उन्हें खुशनुमा माहौल दो तो वे ज्यादा बेहतर काम करके दिखा सकते हैं। मीटिंग्स और मिसिंग के बजाय इस बात पर ज्यादा ध्यान दें कि अखबार को कैसे ज्यादा पठनीय और दूसरों से अलग बनाया जा सकता है। कैसे पाठक को वह दिया जा सकता है जो उसे टीवी या सोशल मीडिया से नहीं मिल पाया है। खबरों की संख्या के बजाय गुणवत्ता पर ध्यान दें।

लव कुमार सिंह

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