Thursday 26 March 2020

दोस्तो, सहमत हों तो पत्रकारिता में थोड़ा बदलाव करिए, वरना तो कोई बात ही नहीं है

If you agree, make some changes in journalism, otherwise there is no problem


#XijinpingVirus #Day3 #ShareTheLoad #Covid19usa #COVID2019 #journalism #media


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मैं दिल्ली में एक बड़े चैनल या अखबार का रिपोर्टर हूं। मैं पिछले दिन या आज ही अपने चैनल या अखबार में दिल्ली के 200 से ज्यादा रैन बसेरों के पते/फोन नंबर, शासन-प्रशासन के अनेक हेल्पलाइन नंबर, गरीबों को मुफ्त में खाना खिलाने वाली समाजसेवी संस्थाओं के नंबर/पते आदि छापकर या प्रसारित करके आया हूं। या फिर इन सबके बारे में मुझे जानकारी है। इसके अतिरिक्त अनेक प्रभावशाली अधिकारियों, पुलिस वालों और मंत्रियों के नंबर मेरे फोन में दर्ज हैं। जब मुझे जरूरत होती है या कुछ काम निकलवाना होता है तो मैं आसानी से उन तक अपनी पहुंच बना लेता हूं। मुझे देश-दुनिया की जानकारी है। मुझे पता है कि जो लोग शहरों से अपने गांव लौट रहे हैं, उन्हें गांव के बाहर ही रोका जा रहा है। उनका वहां विरोध हो रहा है और अलग रहने को कहा जा रहा है।

इन सब सूचनाओं से लैस मैं हाईवे पर अपनी गाड़ी में जा रहा हूं, जहां मैं देखता हूं कि देश की राजधानी से अनेक लोग सैकड़ों किलोमीटर दूर स्थित अपने गांवों के लिए पैदल ही निकल पड़े हैं। मेरे मन में तुरंत स्टोरी का आइडिया कौंध जाता है।

एक महिला अपने पति के साथ मुंबई से दिल्ली आई और अब दिल्ली से नेपाल के लिए पैदल ही निकल पड़ी है। उसकी गोद में एक बच्चा है।
सारी जानकारी लेकर मैं उस महिला से पूछता/पूछती हूं- “तुम्हारे बच्चे को दूध मिला?”
महिला बोली- “नहीं।”
मैं फिर पूछता हूं- “अब तुम क्या करोगी?”
महिला निरुत्तर हो जाती है।
ऐसे ही सवाल मैं अन्य लोगों से भी पूछता हूं और इसके बाद कैमरे की तरफ मुंह करके और बड़े-बड़े आदर्श वाक्य बोलकर अपनी स्टोरी समाप्त कर देता हूं।

क्या मुझे ये सवाल पूछने के साथ ही उस महिला और ऐसे ही पैदल जाने वाले व्यक्तियों को यह नहीं बताना चाहिए था कि आप सब यहीं रुकिये। ये पैदल यात्रा आप सबको बहुत मुश्किल में डाल देगी। क्या मुझे उन्हें यह नहीं बताना चाहिए कि गांवों में भी अब बाहर से आने वालों का विरोध हो रहा है। क्या मुझे उन्हें दिल्ली के रैन बसेरों का पता नहीं बताना चाहिए जहां दोनों वक्त मुफ्त भोजन मिल रहा है। क्या मुझे अपनी जानकारियों का इस्तेमाल करके ऐसे लोगों के लिए आश्रयस्थल और भोजन-पानी का इंतजाम नहीं करना चाहिए था। क्या मुझे इन परेशान लोगों का इंतजाम करने के लिए उन अधिकारियों, मंत्रियों को फोन नहीं लगाना चाहिए था, जिन्हें मैं अपने काम के लिए दिन में कई बार फोन लगाता रहता हूं। इससे उन अधिकारियों और मंत्रियों की भी परीक्षा हो जाती कि वे इस संकट की घड़ी में कैसा रिस्पांस देते हैं। इससे स्टोरी भी मजबूत होती और लोगों की समस्या भी हल हो जाती। कुल मिलाकर मेरी स्टोरी तो हो गई, लेकिन मेरा ज्ञान किसी काम नहीं आया और न ही ऐसे लोगों की समस्या हल हुई। वे पैदल चलते हुए आगे निकल गए।

तो क्यों नहीं आगे से ऐसा किया जाए कि स्टोरी की स्टोरी हो जाए, सरकार की टांग भी खड़ी हो जाए और समस्या भी हल हो जाए।
- लव कुमार सिंह

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