Tuesday 7 July 2020

क्या मल्टीनेशनल कंपनियां और उनके भारत में बैठे समर्थक स्वदेशी को आगे नहीं आने देंगे?

Will multinational companies and their supporters sitting in India not allow Swadeshi to come forward?



मलेरिया बुखार में इस्तेमाल होने वाली हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन नाम की दवा का भारत में सबसे ज्यादा उत्पादन होता है। प्रारंभ में इस दवा को कोरोना इलाज के इलाज में कारगर माना गया, इसलिए दुनियाभर में इसका निर्यात भी हुआ। लेकिन फिर अचानक यह दवा फेल हो गई क्योंकि दुनिया की मल्टीनेशनल दवा कंपनियों और उनके भारत में बैठे समर्थकों को यह बात हजम ही नहीं हुई कि कोरोना की दवा के मामले में भारत कैसे लीड कर सकता है। फिर हमने देखा कि नई दवाओं से रेस में हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन पीछे छूटती चली गई।

बाबा रामदेव के संस्थान पतंजलि ने कोरोना के इलाज के लिए कोरोनिल नाम से दवा बनाई। दवा की घोषणा होते ही हड़कंप मच गया। बाबा रामदेव के विरोध में लोग आयुर्वेद तक का विरोध करने लगे। सरकार से संवादहीनता जैसी कुछ गलतियां बाबा रामदेव से भी हुई और इसका नतीजा यह निकला कि अब कोरोनिल बाजार में आ तो गई है लेकिन कोरोना की दवा के रूप में नहीं बल्कि इम्युनिटी बूस्टर के रूप में।

दुनियाभर की कंपनियां और डॉक्टर खुद तो कोरोना के लिए कभी इबोला वायरस की दवा रेमडेसेविर को ट्राई करते हैं तो कभी डेक्सामेथासोन जैसे स्टेरॉयड को आजमाते हैं। कभी रोगियों को हड्डियों के इलाज में काम आने वाली दवा देने का प्रयास करते हैं तो कभी स्वाइन फ्लू की दवा आजमाते हैं। इन प्रयासों के बीच दुनियाभर में लाखों मौतें कोरोना वायरस से हो जाती हैं। स्वयं भारत में यह आंकड़ा 20 हजार के पार पहुंच गया है, लेकिन ऐलोपैथी के डॉक्टर तो कुछ भी आजमा सकते हैं, चाहे लाखों लोग मर जाएं, लेकिन आयुर्वेद की उस दवा की वे जरूर काट करेंगे जिसका कोई साइड इफेक्ट भी नहीं है और जिससे कम गंभीर मरीज ठीक किए जा सकते हैं।

यही रवैया कोरोना की वैक्सीन को लेकर दिखाई दे रहा है। विदेश में जब किसी वैक्सीन के बनने या बनाने के प्रयास करने की खबर आती है तो अपने देश में उसे बहुत सकारात्मक तरीके से लिया जाता है, लेकिन जैसे ही पता चला कि अपने देश में ही हैदराबाद की कंपनी भारत बायोटेक ने आईसीएमआर के साथ मिलकर वैक्सीन बना ली है और उसे 15 अगस्त तक लांच करने की कोशिश हो रही है तो हंगामा खड़ा हो गया। कुछ लोगों को विश्वास नहीं हो रहा कि भारत में भी कोरोना वायरस की वैक्सीन बन सकती है। कुछ लोग तुरंत हरकत में आ गए। आईसीएमआर ने एक विभागीय पत्र भेजकर वैक्सीन से जुड़े लोगों से कहा कि वे क्लीनिकल ट्रायल में तेजी लाएं ताकि वैक्सीन 15 अगस्त तक लांच की जा सके। बस इसी को मुद्दा बना लिया गया। उन्हें खुशी इस बात की नहीं है कि भारत ने वैक्सीन बना ली है और उसका ट्रायल हो रहा है, बल्कि उनकी आपत्ति यह है कि 15 अगस्त की बात क्यों हो रही है। अरे भाई, ठीक है क्लीनिकल ट्रायल में देर लगती है, 15 अगस्त को न सही 15 अक्टूबर को ही सही, कम से कम इस बात पर तो खुश हो जाइए कि भारत में वैक्सीन बन रही है। लेकिन नहीं उनके विरोध का अंदाज कुछ ऐसा ही है जैसे पूछ रहे हों कि कोरोना की वैक्सीन भारत सबसे पहले कैसे बना सकता है?

और विडंबना देखिए कि पिछले दिनों जब रूस में यह घोषणा हुई कि वहां पर कोरोना की वैक्सीन बना ली गई है तो किसी ने कोई सवाल नहीं किया, जबकि वास्तविकता यह थी कि रूस में कोरोना वैक्सीन का केवल पहला चरण ही पूरा हुआ है। अभी वहां की वैक्सीन के दूसरे और तीसरे चरण के ट्रायल बाकी हैं। रूस की वैक्सीन के बारे में कहा गया कि वहां पर मध्य जून में वैक्सीन का मानव ट्रायल शुरू हुआ था। ऐसे में मानव ट्रायल के तीन चरण कैसे एक महीने के अंदर पूरे हो सकते हैं? लेकिन भारत में इस तथ्य पर कोई सवाल नहीं किया गया।

ताजा मामला भारत में बने एग्वा (AgVa) नाम के स्वदेशी वेंटिलेटर का है। अभी तक वेंटिलेटर, बाजार में 10 से 20 लाख रुपये में मिल रहे थे, लेकिन एग्वा हेल्थकेयर वेंटिलेंटर की कीमत केवल डेढ़ लाख रुपये है। भारत सरकार की कार बनाने वाली कंपनी मारुति भी एग्वा हेल्थकेयर का सहयोग कर रही है। पीएम केयर फंड से पैसा निकालकर इन किफायती वेंटिलेटर को अस्पतालों के लिए खरीदा गया तो मल्टीनेशल कंपनियों और उनके समर्थकों की छाती पर सांप लोट गया। जब एक वेंटिलेटर डेढ लाख रुपये में मिल रहा है तो उनका 10-20 लाख का वेंटिलेटर कौन खरीदेगा? लिहाजा एक पूरी लॉबी इन वेंटिलेटर को फेल बताने में जुट गई है। राहुल गांधी तक इस अभियान में शामिल हैं।

उधर, एग्वा वेंटिलेटर बनाने वाली कंपनी चीख-चीखकर कह रही है कि स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा पूरी जांच के बाद ही उसके वेंटिलेटर को मंजूरी दी गई है। कंपनी ने कहा है कि वह तीन साल से वेंटिलेटर के बाजार में है और उसका वेंटिलेटर सभी अंतरराष्ट्रीय मानकों पर पूरी तरह खरा है। स्वयं कंपनी के सह-संस्थापक प्रोफेसर दिवाकर वैश ने राहुल गांधी के ट्वीट को गलत बताया और कहा कि राहुल गांधी डॉक्टर तो हैं नहीं जो उन्हें वेंटिलेटर की जांच करना आता हो। उन्होंने बिना वैरीफाई किए ट्वीट किया और वह उन्हें (राहुल गांधी) वेंटिलेटर का डेमो दिखाना चाहेंगे।

दिवाकर वैश का साफ कहना है कि अंतर्राष्ट्रीय निर्माता नहीं चाहते कि भारतीय वेंटिलेटर को बढ़ावा दिया जाए और इसलिए वे स्वदेशी प्रयासों को रोकने की कोशिश कर रहे हैं।

...तो क्या स्वदेशी के प्रयासों को इस देश में इसी प्रकार से हतोत्साहित किया जाता रहेगा? क्या मल्टीनेशनल कंपनियां और उनके भारत में बैठे समर्थक किसी भी स्वदेशी प्रयास को उभरने नहीं देंगे? उनके हालिया प्रयासों को देखकर तो यही लगता है। जब इन मल्टीनेशनल कंपनियों के पास भारीभरकम धन है, पूरे संसाधन हैं तो फिर वे भारत में बने उत्पादों से स्वस्थ प्रतिस्पर्धा करने में क्यों हिचक रहे हैं? फिलहाल केंद्र सरकार भी भारी दबाव में दिखाई दे रही है, जबकि उससे आशा की जाती है कि वह स्वदेशी के मामले में भी कुछ इसी प्रकार की स्ट्राइक करे जैसी उसने चीन और पाकिस्तान के मामले में की है। यहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कहना चाहूंगा कि उन्होंने जनता से 'लोकल के लिए वोकल' होने को तो कहा है, लेकिन सरकार को भी तो अपने व्यवहार से ऐसा दिखना चाहिए कि वह 'लोकल के लिए वोकल' है। सरकार, डब्लूएचओ और मल्टीनेशनल कंपनियों के दबाव में क्यों दिखाई दे रही है?

-लव कुमार सिंह

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