If this suggestion of Sonia Gandhi is implemented then will the media be in trouble?
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कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने मंगलवार 7
अप्रैल 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दो पेज का पत्र लिखकर पांच सुझाव
दिए थे। ये सुझाव थे-
- सरकार द्वारा विभिन्न मीडिया मंचों को दिए जाने वाले विज्ञापन (कोरोना को छोड़कर) दो साल तक रोक दिए जाएं। सरकार हर साल विज्ञापनों पर लगभग 1250 करोड़ रुपये खर्च करती है
- 20 हजार करोड़ की हालत से बनाए जा रहे नए संसद भवन और दूसरी इमारतों के निर्माण संबंधी सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को स्थगित कर दिया जाए।
- विदेश यात्राएं स्थगित कर दी जाएं।
- सरकारी खर्च में 30 प्रतिशत की कटौती की जाए और
- पीएम केयर्स फंड की राशि को प्रधानमंत्री राहत कोष में स्थानांतरित कर दिया जाए।
इन पांच सुझावों में से पहले सुझाव पर मीडिया में
माहौल गरमा गया है। इस सुझाव से मीडिया में रोष व्याप्त हो गया है। निजी टेलीविजन
न्यूज चैनल्स का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठन न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन
(एनबीए) के अध्यक्ष रजत शर्मा ने इस सुझाव को बिल्कुल खारिज कर दिया है।
रजत शर्मा
ने कहा है कि ऐसे समय में जब मीडियाकर्मी अपनी जान की परवाह न करते हुए महामारी के
बीच न्यूज कवर करके अपनी राष्ट्रीय ड्यूटी निभा रहे हैं तो कांग्रेस अध्यक्ष की ओर से
इस तरह का बयान काफी हतोत्साहित करने वाला है। शर्मा का कहना है कि आर्थिक मंदी की
वजह से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के राजस्व में पहले से ही काफी गिरावट आई हुई है। ऐसे
में सरकार और सरकारी उपक्रमों द्वारा मीडिया विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाने का
सुझाव न केवल मीडिया को बीमार करने वाला है बल्कि पूरी तरह मनमाना भी है। उन्होंने
कांग्रेस अध्यक्ष से इस सुझाव को वापस लेने की मांग की है।
हिंदी अखबार दैनिक जागरण ने तो सोनिया गांधी के
सुझाव को विचित्र और आपातकाल वाली मानसिकता जैसा बताया है। दैनिक जागरण ने इसे
जागरूकता और जानकारी के प्रसार के लिए जरूरी मीडिया पर हमला करने की कोशिश करार
दिया है।
मौटे तौर विज्ञापन बंद करने की मांग से पक्के तौर पर कोई सहमत नहीं होगा। मगर इससे दो सवाल उभरते हैं। पहला तो यह कि सरकार विज्ञापन देने में टीवी,अखबार, निजी रेडियो और डिजिटल प्लेटफॉर्म में भेदभाव क्यों करती है? वेबसाइट्स, न्यूज़ पोर्टल्स और डिजिटल माध्यमों के साथ न्याय नहीं हो रहा है। अगर एक टीवी चैनल को महीने में सरकार से एक करोड़ रुपए के विज्ञापन मिलते हैं तो न्यूज पोर्टल्स को कम से कम आधा यानी पचास लाख तो मिलना चाहिए। सोशल और डिजिटल माध्यम नई नस्लों के लिए सर्वाधिक अनुकूल और पसंदीदा माध्यम हैं। वे तुरंत असर या मार करते हैं। इस माध्यम की उपेक्षा सरकार क्यों करती है-समझ से परे है। इसी तरह अख़बार और रेडियो के मामले में धन का आनुपातिक संतुलन होना चाहिए। दूसरा यह कि चैनलों के संगठन की यह बात सच नहीं है कि इन दिनों उनका व्यय बढ़ा है। खर्च तो उल्टा कम कम हुआ है। न्यूनतम संसाधनों में जब काम होता है तो खर्च भी कम होता है। असल बात तो यह है कि कोरोना संकट दो महीने से चल रहा है। इस दरम्यान अनेक चैनलों ने अपने कर्मचारियों और पत्रकारों के वेतन तथा अन्य भत्तों में अनाप शनाप कटौती की है। वेतन भी टुकड़ों-टुकड़ों में दिया जा रहा है। कुछ चैनलों में तो अधिक सैलरी वाले प्रोफेशनल्स को विदाई दी जा रही है। असल में सरकारी संरक्षण तो उन पत्रकारों को मिलना चाहिए। सरकारी विज्ञापन पर पलना तो वैसे भी स्वस्थ और निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए अच्छा नहीं माना जाता। प्रोफेशनल्स को नौकरी छोड़ने के लिए बाध्य करने से बड़ा जुर्म और क्या हो सकता है। यह ध्यान में रखिए कि मंदी की मार झेलने वाले चैनलों को बाजार के विज्ञापनों का टोटा हो जाएगा और वे सरकारी पैसे की प्राणवायु पर जिंदा रहेंगे तो निष्पक्ष पत्रकारिता कैसे करेंगे? सरकार से उपकृत प्रबंधन व्यवस्था की ख़ामियां निकालने अथवा आलोचना करने का काम किस मुंह से करेगा। सरकार किसी भी दल की हो, अपनी आलोचना कभी पसंद नहीं करती। आप उसकी प्रशस्ति में गीत गाएं या ढोल बजाएं, उसे तो अच्छा ही लगेगा।
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