यूपी विधानसभा चुनाव 2022- मतदाता पर एक नजर माइक्रोस्कोप से
UP Vidhan Sabha Election 2022- A look at the voter with a microscope
उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनावों के मद्देनजर हाल ही में एक-दो दिन के अंतराल से दो लेख या विचार पढ़ने को मिले। एक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ स्तंभकार डॉ. ए.के. वर्मा ने लिखा है जबकि दूसरा जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज के निदेशक बद्री नारायण ने। दोनों लेखों के स्वर में काफी समानता है। वर्मा के लेख में जहां जातियों की बात है तो बद्री नारायण के लेख में मुस्लिम समाज की। आप इनके विचारों से असहमत हो सकते हैं लेकिन जो बिंदु इन लेखकों ने उठाए हैं, वे अवश्य ही विचार के योग्य हैं और भारतीय समाज व राजनीति में नए ट्रेंड का संकेत करते हैं। राजनीतिक दलों को इनका संज्ञान लेना चाहिये। यहां प्रस्तुत है इन दोनों लेखों की कुछ प्रमुख बातें....
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...वास्तव में एक अदृश्य मतदाता समूह प्रकट हो गया है जो सामाजिक स्तर पर अपनी जातीयता को पकड़े है, लेकिन राजनीतिक स्तर पर उसे छोड़ने को तैयार है
- डॉ. ए.के. वर्मा (राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ स्तंभकार)
- भारतीय लोकतंत्र में अस्मिता या पहचान की राजनीति को विस्थापित कर आकांक्षा की राजनीति ने जन्म ले लिया है। राजनीतिक दलों के परंपरागत जनाधार में आमूलचूल परिवर्तन हो रहा है और अस्मिता की राजनीति करने वाले दलों के हाथ से सजातीय मतदाता छिटक रहा है।
- गहराती लोकतांत्रित जड़ें धीरे-धीरे मतदाता को सामाजिक संरचना के खांचे से निकालकर नूतन राजनीतिक संरचनाओं के खांचे में डालने लगी हैं। जमीनी हकीकत बदल रही है।
- ...वास्तव में एक अदृश्य मतदाता समूह प्रकट हो गया है जो सामाजिक स्तर पर अपनी जातीयता को पकड़े है, लेकिन राजनीतिक स्तर पर उसे छोड़ने को तैयार है। यही वह मनोवैज्ञानिक परिवर्तन है, जो अस्मिता की राजनीति करने वाले दल अभी तक समझ नहीं पा रहे हैं और वे पुराने प्रयोगों में ही उलझे हैं। इसी में चुनावी विजय और पराजय के सूत्र छिपे हैं।
- अस्मिता की राजनीति सामंतवादी सामाजिक संरचना और मनोवृत्ति की देन है, जो किसी जातीय, भाषाई, धार्मिक या क्षेत्रीय समूह को एक राजनीतिक दल से स्थायी रूप से प्रतिबद्ध कर, उसके चयन के विकल्प को खत्म कर देती है। लोकतंत्र की मांग है कि मतदाता के सामने चयन के विकल्प खुले हों और वह उनमें से किसी विकल्प का चयन करने के लिये स्वतंत्र हो। ऐसा करने में जरूरी नहीं कि उस पर कोई बाह्य अवरोध हो। वह अपने संस्कार और अपने मनोविज्ञान का भी बंधक हो सकता है, लेकिन जब हम संकीर्ण जातीय बंधन को तोड़ संपूर्ण समाज का आलिंगन करते हैं और समाज भी हमें गर्मजोशी और सौहार्द के साथ स्वीकार करे तो जातीय प्रतिबद्धताओं के बावजूद हमारे राजनीतिक विकल्प खुल जाते हैं।
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मुस्लिम वोट के एकरूपी या समरूपी होने को एक मिथक ही माना जाना चाहिये
बद्री नारायण (जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज के निदेशक)
- यूपी में 2022 के चुनावों के मद्देनजर मुसलमानों की राजनीतिक पसंद जानने के लिये हमने उनकी संयुक्त आबादी और बहुमत वाले गांवों पर अध्ययन किया। इसमें कई विमर्श बने। तमाम मिथक टूटे। कुछ अवधारणाएं भी पुष्ट हुईं।
- मुस्लिम समुदाय की सामाजिक संरचना उसे बहुल रूपी समाज के रूप में प्रस्तुत करती है। अशराफ, अजलाफ और अरजाल जैसे सामाजिक स्तरों पर तो मुस्लिम समुदाय बंटा ही है, ततवा, रंगरेज, जोगी, डफाली, ललबेगी और बुनकर जैसे पेशों से बनीं अनेक जातियां और उनके प्रतिस्पर्धी टकरावों की ध्वनि इस समूह के ताने-बाने में प्रतिध्वनित होती है। जब कोई भी समूह इतने स्तरों में बंटा हो तो धार्मिक अस्मिता पर केंद्रीय गहन गोलबंदी के बावजूद उसके बीच भी कायम राजनीतिक असहमति के स्वर सुनाई पड़ते हैं।
- हमने पाया कि मुस्लिम बस्तियों में एक समूह ऐसा भी है जो भाजपा की तारीफ करता है। ऐसे परिवारों में धार्मिक और जातीय अस्मिता की चेतना के साथ-साथ 'लाभार्थी' (आवास, बिजली, रसोई गैस, आयुष्मान आदि से) होने का भाव भी बनने लगा है। हालांकि उनकी 'लाभार्थी चेतना' के निर्माण और उभार की प्रक्रिया अभी धीमी है। संभव है कि ये भाजपा की तारीफ करने के बावजूद वोट कहीं और दें या हो सकता है कि इनमें से अनेक भाजपा को वोट दें।
- हालांकि मध्यवर्गीय और ओबीसी मुस्लिम मतदाताओं का एक वर्ग भी दिखा जो या तो सपा के पक्ष में गोलबंद हो रहा है या फिर होने की तैयारी में है। मध्य आयु वर्ग और उम्रदराज मुस्लिमों का एक तीसरा समूह भी दिखा जो कांग्रेस शासन को याद कर रहा था। ऐसे में मुस्लिम वोट के एकरूपी या समरूपी होने को एक मिथक ही माना जाना चाहिये। शिया और सुन्नी की राजनीतिक पसंद में विविधता को पहले ही मान्यता मिल गई है और आज नहीं तो कल मुस्लिम समाज की विविधता राजनीतिक विमर्श को हिस्सा बनेगी।
- यह रूपांतरण इसलिए हो रहा है क्योंकि जनतंत्र स्वयं में अपनी एक आत्मचेतना रचता है। यह धीरे-धीरे ही सही 'अपनी जनता' बनाता जाता है, जो किसी विशेष जाति, वर्ग या धर्म से जुड़े होने के बावजूद सत्ता एवं शासन से मिलने वाले लाभों से अपनी राजनीतिक पक्षधरता तय करता है।
- सत्ता संचालित जनतंत्र इन समूहों में एक दूसरा वर्ग भी रचता है जिसे हम प्रशासनजनित विकास की भाषा में 'एस्पिरेंट' यानी आकांक्षी समूह कहते हैं। यह समूह आगे बढ़ने की चेतना से लैस होता है, जिसमें जाति, धर्म, सुरक्षा एवं विकास की चाह सभी में एक-दूसरे से आबद्ध होती है।
- यदि इन परिवर्तनों को गहराई से समझा जाए तो न केवल मुस्लिम मतदाताओं में, बल्कि अस्मिताओं पर आधारित किसी भी मतदाता वर्ग में हो रहे ऐसे रूपांतरण का अहसास किया जा सकता है। यदि इन वर्गों की थाह ली जाए तो उनमें जाति एवं धर्म आधारित आवाज ही नहीं, बल्कि और भी कई आवाजें सुनाई देंगी। उनमें एक आवाज भारतीय जनतंत्र द्वारा चरणबद्ध रूप से किये जा रहे विकास का लाभों की भी है, जिन्हें हमें अपनी व्याख्याओं में सुनना होगा। यह आवाज जनतंत्र द्वारा रची जा रही आत्मचेतना की भी, जो मुस्लिम मतदाताओं के बारे में बने-बनाए अनेक मिथकों को तोड़ती जा रही है। ऐसी परिवर्तित आत्मचेतना पर राजनीतिक विश्लेषकों और राजनीतिक दलों को दृष्टि डालनी होगी।
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