शादी से पहले तय करें कि यदि शादी टूटी तो गुजारा कैसे होगा?
चंद्रभूषण जी का आलेख जो बहुत कुछ सोचने को विवश करता है
तीन
मामलों में स्त्री चुपचाप पति का घर छोड़कर अपने मां-बाप के घर चली गई,
जबकि दो में वह गंभीर मनोरोग की शिकार हो गई। एक ने सूसाइड अटेंप्ट
किया, बड़ी कोशिशों के बाद किसी तरह उसकी जान बची। दूसरी को
हिंसक दौरे पड़ने लगे। उसको किसी सायकायट्रिस्ट से दिखाने की सख्त जरूरत है,
लेकिन यह तभी संभव है जब उसका किसी पर भरोसा हो। भारत के मध्यवर्गीय
परिवारों में अचानक इतना खलल कैसे पैदा हो गया, इस बारे में
मनोवैज्ञानिक मित्रों से बात की तो उन्होंने देश की पढ़ी-लिखी स्त्रियों में घर कर
रही असुरक्षा को इसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेवार ठहराया।
उनका
कहना था कि पहले लड़कियां शादी करके बच्चे पालने को ही अपनी नियति मानती थीं। उनकी
पढ़ाई भी इस सोच के साथ चलती थी कि इससे उन्हें बच्चे पालने में मदद मिलेगी और
सोसाइटी में थोड़ी इज्जत भी रहेगी। लेकिन अभी वे करिअर एंगल से पढ़ाई कर रही हैं।
अपने जीवन को लेकर उनके मन में एक खाका है, जो कुछ
तो शादी के साथ ही बिगड़ जाता है। इसके बाद उनसे किसी अतिरिक्त एडजस्टमेंट की मांग
की जाती है तो बात सीधे दिल पर लगती है। सबसे बुरी बात यह कि उनके पास आगे-पीछे
कहीं भी पैर टिकाने की जगह नहीं होती। ऐसे में उनका अंधा आक्रोश कभी झगड़े और तलाक
की दिशा में बढ़ता है, तो कभी मनोरोग का रूप लेकर और भी
भयानक परिणतियों की ओर ले जाता है।
अपने
देश में लड़कियों को नौकरी या बिजनेस के जरिये अपनी नियमित जीविका की व्यवस्था किए
बगैर शादी करनी ही नहीं चाहिए, यह मेरी पुरानी
राय रही है। लेकिन ज्यादातर मामलों में यह बात खुद में बेमानी है। लड़कियों को काम
मिलने की संभावना अपने यहां लड़कों की तुलना में काफी कम है। जब इतने सारे लड़के
ही आज बेरोजगारी या अर्ध-बेरोजगारी से गुजर रहे हैं तो सारी लड़कियों को काम
पकड़ने के बाद ही शादी करने की सलाह देना उन्हें कोरा उपदेश सुनाने जैसा हुआ। और
एक बार को अगर सारी लड़कियां बिना कोई काम पकड़े शादी के लिए अपनी मंजूरी न देने
पर राजी हो जाएं, तो जो शादियां हो चुकी हैं, जो परिवार बन चुके हैं, उनमें मौजूद स्त्रियों की
सेहत पर इससे क्या फर्क पड़ने वाला है?
जाहिर
है, चिंता की असल बात यह है कि विवाहित स्त्रियों में
इतनी असुरक्षा क्यों है और इसे कम करने के लिए क्या किया जा सकता है। पश्चिमी
देशों में स्त्रियां एक हद तक इस चिंता से बाहर आ चुकी हैं। अमेरिका में स्त्रियों
की निजी संपत्ति 14 ट्रिलियन डॉलर, यानी
वहां मौजूद कुल व्यक्तिगत संपत्ति का 51 प्रतिशत है। इसके
अलावा मेरे सामने अमेरिकी स्त्री-पुरुषों की औसत (मीडियन) संपत्ति का नवीनतम
आंकड़ा भी है, जिसे वहां 2011 में हुई
अंतिम जनगणना से लिया गया है।
इसमें
एक जगह 35 साल से कम उम्र की स्त्री के मालिकाने
वाले परिवारों की औसत संपत्ति 1392 डॉलर, जबकि इसी आयु वर्ग के पुरुष मालिकाने वाले परिवारों की औसत संपत्ति 6200
डॉलर बताई गई है। यह आंकड़ा 55 से 64 वर्ष आयु वर्ग के स्त्री और पुरुष मालिकाने वाले परिवारों में सीधा पलट कर
क्रमश: 61,879 डॉलर और 55,718 डॉलर हो
गया दिखता है।इस चमत्कार की वजह यह तो नहीं हो सकती कि 35 से
55 साल के बीच अमेरिकी स्त्रियों की आमदनी पुरुषों की तुलना
में जादुई ढंग से बढ़ जाती है!
फिर
दूसरी वजह क्या हो सकती है? रोजगार और कारोबार की बेहतर स्थितियों
और सामाजिक पूर्वाग्रहों के अभाव के अलावा जो चीज अमेरिकी स्त्रियों को सबसे
ज्यादा मदद पहुंचाती है, वह यह कि इस आयु वर्ग में आने तक वे
एक-दो विवाह बंधनों के टूट जाने पर उनसे एलिमोनी हासिल कर चुकी होती हैं। हम भारत
के लोगों के लिए बात अटपटी है, लेकिन यह निर्वाह निधि उन्हें
पकी उम्र में अपनी योग्यता-क्षमता के भरपूर उपयोग का मौका देती है। इसके बरक्स
भारत में लोग-बाग बेटी की शादी पर पचीस-पचास लाख रुपये यूं उड़ा देते हैं, लेकिन एक बार भी नहीं सोचते कि कल को अगर शादी नहीं चली तो इसी बेटी को
दस-बीस हजार रुपये घरखर्च के लिए अदालत की ठोकरें खानी पड़ेंगी।
तात्पर्य
यह कि स्त्रियों को अगर जिंदगी भर असुरक्षा के पिंजड़े में कैद हो जाने की नियति
से बचाना है तो सारी बातें शादी से पहले ही साफ हो जानी चाहिए। शादी की तैयारी में
जुटी लड़की को पक्का पता होना चाहिए कि किसी वजह से उसका यह नया रिश्ता नहीं चल
पाया तो स्थायी संपत्ति और नियमित गुजारा राशि के रूप में उसे अपने मायके और
ससुराल से कम से कम इतनी रकम जरूर मिल जाएगी। इसके बिना विवाह में स्त्रियों की
दशा दो अनजान कुनबों के बीच खेले जा रहे जुए में दांव पर लगी चीज जैसी ही बनी
रहेगी।
-चंद्रभूषण-
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