The agitating farmers had won before 26 January but .....
कुछ वरिष्ठ पत्रकार लिख रहे हैं कि राकेश टिकैत के ‘बड़े नेता’ के रूप में उभरने के बाद किसान आंदोलन ‘सफलता’ की ओर बढ़ चला है। मेरा मानना है कि जहां तक तीन कृषि कानूनों की बात है तो किसान आंदोलन 26 जनवरी के पहले ही सफल हो गया था, लेकिन स्वयं किसान नेताओं ने 26 जनवरी का कांड कराकर अपनी सफलता में पलीता लगा लिया। अब राकेश टिकैत की अक्टूबर-नवंबर तक आंदोलन चलने की घोषणा से ऐसा लगता है कि किसानों का कोई भला हो या न हो, लेकिन राकेश टिकैत की यह कोशिश होगी कि यह आंदोलन इतना लंबा चले कि 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों तक इसकी तपिश कायम रहे।
किसानों के आंदोलन के बाद संसद से पास जिन
कानूनों पर सरकार तमाम संसोधनों को तैयार हो गई हो, इसके बाद जिन कानूनों के अमल
पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी हो और जिन कानूनों को स्वयं सरकार डेढ़-दो साल के
लिए स्थगित कर रही हो तो यह एक तरह से इन कानूनों के खत्म होने जैसा ही है। ये तीनों
ही बातें भारत के इतिहास में दुर्लभ घटनाओं जैसी हैं और सरकार के लिए काफी
अपमानजनक भी, लेकिन संभवतः जो लोग किसानों का नेतृत्व कर रहे हैं, उन्हें कृषि
कानूनों की वापसी से ज्यादा इस बात में दिलचस्पी ज्यादा है कि इस मुद्दे के जरिये
सरकार पूरी तरह घुटनों पर आ जाए या इस आंदोलन का ज्यादा से ज्यादा राजनैतिक लाभ
उठा लिया जाए। यानी आप चाहते हैं कि सामने वाला आपकी बात भी माने और साथ में आपके
सामने नाक भी रगड़े। आप जानते हैं कि सामने वाला (सरकार) नाक रगड़ेगा नहीं तो
बैठे-बिठाए राजनीतिक फायदे लेने में हर्ज क्या है।
ठीक है कि 26 जनवरी के बाद हालात ने ऐसे मोड़ लिए कि राकेश टिकैत के लिए स्थितियां बेहद अनुकूल हो गईं। लेकिन यदि राकेश टिकैत सरकार के साथ किसी समझौते पर पहुंचते हैं तो क्या यह पंजाब के किसान नेताओं को मंजूर होगा? राकेश टिकैत मुजफ्फरनगर और उसके आसपास की सिसायत में मजबूत हो गए, लेकिन क्या बाकी किसान संगठनों के नेता राकेश टिकैत की बात मानेंगे? क्या वे राकेश टिकैत को अपना नेता मानेंगे? और उन अलगाववादी तत्वों का क्या जो किसानों के भेष में इस आंदोलन में घुसे बैठे हैं? कुल मिलाकर स्थिति बड़ी जटिल है।
मुझे लगता है कि सरकार जितना झुक सकती थी, उतना झुक चुकी है। किसान नेताओं को इस बात को समझना चाहिए। यह सरकार ही नहीं, कोई भी सरकार इससे ज्यादा नरम नहीं हो सकती। यदि होगी तो भी इस बात की कोई गारंटी नहीं कि किसानों का आंदोलनरत हिस्सा सरकार की वाहवाही करेगा। उल्टे जनता का वह बड़ा वर्ग उससे नाराज हो जाएगा जो चाहता है कि 26 जनवरी की हिंसा के दोषियों के खिलाफ अभूतपूर्व कार्रवाई हो।
वरिष्ठ पत्रकार राजीव सचान ठीक लिखते हैं कि “कोई सरकार चाहे कमजोर हो या मजबूत, किसी मसले पर उसके झुकने की एक सीमा होती है। कृषि कानूनों के मामले में मोदी सरकार पर्याप्त झुक चुकी है।” यह बात किसान नेताओं को भी शायद पता है लेकिन स्वयं उनके और इस आंदोलन के पीछे की ताकतों के मंसूबे कुछ और हैं, इसलिए किसान नेता समझकर भी बात को नहीं समझने का नाटक कर रहे हैं। अब शायद उनके मंसूबे यही हैं कि इस मुद्दे के बहाने आंदोलन को इतना खींचा जाए कि 2022 के उत्तर प्रदेश के चुनाव पर इसका अच्छा-खासा असर पड़ जाए। कम से कम राकेश टिकैत और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल की सक्रियता देखकर तो यही लगता है। कई पत्रकार साथियों ने अभी से घोषणा कर दी है कि उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में मुजफ्फरनगर के आसपास की विधानसभा सीटें किसके खाते में जाएंगी। जाहिर है कि ऐसी चर्चा राकेश टिकैत के कानों तक भी पहुंच रही होगी और इससे उनके हौसले बुलंद ही हो रहे होंगे।
उधर, पंजाब के किसान नेताओं और आंदोलन में घुसपैठ कर चुके खालिस्तानी तत्वों के अपने हित हैं, लेकिन सबके हित (इनमें विपक्षी दल भी शामिल हैं) एक बात पर आकर कॉमन हो जाते हैं कि उनके हित तभी सफल होंगे जब वर्तमान मोदी सरकार कमजोर होगी। इसीलिए दिल्ली के बार्डरों पर चल रही रस्साकशी फिलहाल यू हीं जारी रहने की संभावना लग रही है। हां, नरेंद्र मोदी कुछ 'आउट ऑफ द बॉक्स' सोच रहे हों तो बात अलग है।
- लव कुमार सिंह
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